Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 506
________________ 10 खण्ड-४, गाथा-२०/२१, ज्ञान-दर्शनभेदाभेदविमर्श ४८७ एव केवलान्तर्भूतत्वेन तयोरभेदात्। न चैवमभेदादद्वैतमेव सूत्रयुक्तिविरोधात्, तत्परिच्छेदकस्वभावतया कथंचिदेकत्वेऽपि तथा तद्व्यपदेशात् ।।२०।। एतदेव दृष्टान्तद्वारेणाह(मूलम्-) दंसणमोग्गहमेत्तं 'घडो' त्ति णिव्वण्णणा हवइ णाणं । जह एत्थ केवलाण वि विसेसणं एत्तियं चेव ।।२१।। 5 (व्याख्या) अवग्रहमानं मतिरूपे बोधे दर्शनम् ‘इदम्'- 'तत्' इत्यव्यपदेश्यम्, 'घटः' निश्चयेन वर्णना = निश्चयात्मिका मतिः ज्ञानं यथेह- तथेहापि इति दान्तिकं योजयति 'जह एत्थ' इत्यादिना केवल-योरप्येतन्मात्रेणैव विशेषः, एकान्तभेदाभेदपक्षे तत्स्वभावयोः पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गात्; अजहद्वृत्त्यैकरूपयोरेवाभिनिबोधिकरूपयोस्तत्तद्रूपतया तथाव्यपदेशसमासादनात् कथंचिदेकानेकात्मकत्वोपपत्तेः, भेदैकान्ते तयोरप्यभावापत्तेः ।।२१।। हो गया कि वे दोनों केवलदर्शन और केवलज्ञान भिन्न हैं। उन दोनों में ऐकान्तिक भेद नहीं मान लेना, दोनों एक केवल में अन्तर्भूत होने से अभिन्न ही है। - 'इस प्रकार अभेद होने से अद्वैत ही सिद्ध होगा' - ऐसा भी मत समझना, क्योंकि पूर्वोक्त भेदप्रतिपादक सूत्र एवं भेदसाधक युक्तिओं के साथ विरोध प्रसक्त होगा। वे दोनों परिच्छेदक यानी बोधात्मक स्वभाववाले होने से कथंचिद् एक जरूर है फिर भी सूत्र और युक्तियों के बल से उन का भिन्नरूप से व्यवहार भी मान्य है।।२०।। 15 [ ज्ञान और दर्शन के भेद की सदृष्टान्त स्पष्टता ] अवतरणिका :- दृष्टान्त के द्वारा उसी भेद को समझाते हैं - गाथार्थ :- अवग्रहमात्र दर्शन है, 'घट' इस प्रकार का निश्चय ज्ञान है। वैसे ही यहाँ केवलों का भी इतनामात्र ही भेद हैं।।२१।। व्याख्यार्थ :- मतिस्वरूप बोध में "किञ्चित्' ऐसा जो अवग्रह होता है वही दर्शन है क्योंकि 20 'यह या वह' किसी विशेष प्रकार से वहाँ बोध नहीं होता। 'घट' इस प्रकार के शब्दोल्लेख से गर्भित जो निश्चयात्मक वर्णना यानी मति ही ज्ञान है (इस प्रकार मतिबोध में दर्शन और ज्ञान का विभेद है।) जैसे यह मतिबोध में दर्शन-ज्ञान का भेद है उसी तरह केवल बोध में भी स्वरूपमात्र से ही इतना दर्शन-ज्ञान का भेद है। इन दोनों का एकान्तभेद या एकान्त अभेद दोनों पक्ष पूर्वोक्त अनेक दोषों को आमन्त्रण देनेवाले 25 हैं। सूत्रों के साथ विरोध एवं युक्तिओं का विरोध ये पूर्वोक्त दोष हैं। मति बोध का द्विविध स्वरूप है, दोनों ही एक-दूसरे के साथ मिलेजुले ही हैं, एकदूसरे से दूर भागनेवाले नहीं है। वे दोनों स्वरूप (सामान्य और विशेष) को ले कर, एक 'दर्शन' नाम से और दूसरा 'ज्ञान' नाम से प्रसिद्धि में आते हैं। अत एव उन दोनों में कथंचिद् एकानेकात्मकता दुर्घट नहीं। यदि उन दोनों में एकान्ततः भेद माना जाय तो दोनों ही शून्य बन जायेंगे क्योंकि एक के विना दूसरे का अस्तित्व ही अकल्प्य है। 30 4. पहले (पृ. ३२४ में) प्रत्यक्ष का निर्दोष लक्षण करने के प्रस्ताव में (पृ० ३२५-२४ में) दर्शन को अवग्रह से विभिन्न दिखाया है - यहाँ एकदेशिमत प्रदर्शन समझना - (द्र० गाथा २३ • अवतरणिका)। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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