Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 520
________________ खण्ड-४, गाथा - ३७/३८/३९, उत्पत्ति-विनाशविमर्श (मूलम् ) जीवो अणाइ-निहणो केवलणाणं तु साइयमणंतं । इअ थोरम्मि विसेसे कह जीवो केवलं होइ ।। ३७ ।। तम्हा अण्णो जीवो अण्णे णाणाइपज्जवा तस्स । उवसमियाईलक्खणविसेसओ केइ इच्छन्ति । । ३८ ।। ( व्याख्या) जीवोऽनादिनिधनः केवलज्ञानं तु साद्यपर्यवसितम् इति स्थूरे विरुद्धधर्माध्यासलक्षणे 5 विशेषे छायाऽऽतपवदत्यन्तभेदात् कथं जीवः केवलं भवेत् ? जीवस्यैव तावत् केवलरूपता असंगता दूरतः संहननादेरिति भावः ।। ३७ ।। तस्माद् विरुद्धधर्माध्यासतोऽन्यो जीवो ज्ञानादिपर्यायेभ्यः, अन्ये च ततो ज्ञानादिपर्याया लक्षणभेदाच्च तयोर्भेदः। तथाहि - ज्ञानदर्शनयोः क्षायिकः क्षायोपशमिको वा भावो लक्षणम् जीवस्य तु पारिणामिकादिर्भावो लक्षणम् इति केचित् व्याख्यातारः प्रतिपन्नाः । । ३८ ।। एतन्निषेधायाह = (मूलम् ) अह पुण पुव्वपयुत्तो अत्थो एगंतपक्खपडिसेहे । = Jain Educationa International तह वि उदाहरणमिणं ति हेउपडिजोअणं वोच्छं । । ३९ ।। ५०१ के द्वारा केवलज्ञान के उत्पाद-व्यय कैसे मान सकते हैं ? इस प्रश्न को दो गाथा से प्रस्तुत करते हैं-गाथार्थ :- जीव अनादिअनंत है, केवलज्ञान तो सादि अनंत है। इस प्रकार स्थूल भेद के रहते 15 हुए आत्मा केवलात्मक कैसे हो सकता है । । ३७ ।। अत एव जीव जुदा है और ज्ञानादि पर्याय भी जुदे हैं । औपशमिकादि लक्षणभेद से कुछ लोग ऐसा मानते हैं । । ३८ ।। व्याख्यार्थ :- जीव तो अनादि अनंत है जब कि केवलज्ञान तो सादि अनंत है । इस प्रकार जब विरुद्ध धर्मों (अनादि-सादि) का अध्यासरूप इतना बडा भेद धूप-छाँव की तरह विद्यमान है तब जीव केवलात्मक कैसे माना जाय ? तात्पर्य यह है कि जीव की केवलरूपता ही मेल नहीं खाती तो 20 संघयणादिरूपता से तो कैसे मेल बैठेगा ।। ३७ ।। इसी कारण से यानी विरुद्धधर्माध्यास का विघ्न होने से जीव ज्ञानादिपर्याय से भिन्न है और ज्ञानादिपर्याय जीव से भिन्न हैं । दोनों के लक्षण उक्त प्रकार से भिन्न भिन्न है इसलिये उन दोनों में भेद ही है। देखिये- ज्ञान-दर्शन का लक्षण है क्षायिक (कर्मक्षय से निपजा हुआ) भाव अथवा क्षायोपशमिक (क्षय एवं उपशम से मिश्र) भाव । जीव का लक्षण उन से भिन्न ही है वह है अनादि पारिणामिक भाव ( अनादि काल से जीवत्व परिणाम बना हुआ है ) । 25 कुछ व्याख्याताओं का यह अभिप्राय है कि इस प्रकार लक्षण भिन्न भिन्न होने के कारण जीव और केवलज्ञान भी भिन्न है | |३८|| [ आशंकानिरसन - एकान्त से भेद या अभेद नहीं ] अवतरणिका :- कुछ वादियों ने जीव और केवलज्ञान के भेद का जो समर्थन किया है, अभेद पर आक्षेप किया है उस का अब सूत्रकार निषेध कर रहे हैं For Personal and Private Use Only 10 30 www.jainelibrary.org

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