Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 517
________________ ४९८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ (व्याख्या) एवं = अनन्तरोक्तविधिना जिनप्रज्ञप्तान् भावान् श्रद्दधानस्य पुरुषस्य यदाभिनिबोधिकं ज्ञानं तदेव सम्यग्दर्शनम्, विशिष्टावबोधरूपाया रुचेः सम्यग्दर्शनशब्दवाच्यत्वाद् इति भावः ।।३२ ।। ननु यदि सम्यग्ज्ञाने सम्यग्दर्शनं नियमेन, दर्शनेऽपि रुचिलक्षणे सम्यग्ज्ञानं किमिति न स्यात् ? न, एकान्तरुचावपि सम्यग्ज्ञानप्रसक्तेः - इत्याह(मूलम्) सम्मण्णाणे णियमेण दंसणं दंसणे उ भयणिज्ज। सम्मण्णाणं च इमं ति अत्थओ होइ उववण्णं ।।३३।। (व्याख्या) सम्यग्ज्ञाने नियमेन सम्यग्दर्शनम्, दर्शने पुनः भजनीयं = विकल्पनीयं सम्यग्ज्ञानम् । एकान्तरुचौ न संभवति अनेकान्तरुचौ तु सम्यग्दर्शने समस्ति। यतश्चैवमतः सम्यग्ज्ञानं चेदं सम्यग्दर्शनं च विशिष्टरुचिस्वभावमवबोधरूपमर्थतः = सामर्थ्याद् उपपन्नं भवति ।।३३।।। 10 अत्र साद्यपर्यवसितं केवलज्ञानं सूत्रे प्रदर्शितम् अनुमानं च तथाभूतस्य तस्य प्रतिपादकं संभवति। तथाहि- घातिकर्मचतुष्टयप्रक्षयाऽऽविर्भूतत्वात् केवलं सादि। न च तथोत्पन्नस्य पश्चात्तस्यावरणमस्ति ज्ञान है वही सम्यग्दर्शन है, क्योंकि विशिष्टावबोधस्वरूप रुचि ही ‘सम्यग्दर्शन' शब्द की वाच्य है ।।३२ ।। [सभी दर्शन सम्यग्ज्ञानरूप नहीं होते ] प्रश्न - पूर्व गाथा में जो सम्यग्दर्शन की बात हुई वहाँ यह प्रश्न है कि सम्यग्ज्ञान को आपने 15 आभिनिबोधिक ज्ञान स्वरूप बताने पर यह नियम फलित हुआ कि सम्यग्ज्ञान के होने पर अवश्य सम्यग्दर्शन होता है, तो रुचिस्वरुप दर्शन के होने पर अवश्य सम्यग्ज्ञान भी क्यों न हो ? । उत्तर :- दर्शन यानी रुचि वह एकान्तगर्भित भी होती है, अनेकान्तगर्भित भी। यदि दर्शन के होने पर सम्यग्ज्ञान की नियमतः सत्ता मानेंगे तो एकान्तरुचिवाले जीव में भी सम्यग्ज्ञान की सत्ता को मानना पडेगा। ३३ वी गाथा से इस तथ्य का निरूपण किया गया है20 गाथार्थ :- सम्यग्ज्ञान के रहते हुए अवश्य दर्शन होता है, दर्शन के होने पर वह (सम्यग्ज्ञान) विकल्पाधीन है। यह (सम्यग्दर्शन) सम्यग्ज्ञानरूप है जो अर्थतः सिद्ध होता है।।३३ ।। ___ व्याख्यार्थ :- जिस जीव को सम्यग्ज्ञान होता है उस को (सम्यग्) दर्शन अवश्य होता है किन्तु दर्शन के होने पर सम्यग्ज्ञान के लिये होने न होने का विकल्प है। एकान्तरुचि = एकान्तवाद यानी किसी भी विधि-निषेध-प्रतिपादन-मान्यता-क्रिया आदि के लिये आग्रह-अतिरेक के होने पर सम्यग्ज्ञान 25 का होना सम्भव नहीं है, अनेकान्तवाद की रुचि रूप अनाग्रहिता के होने पर सम्यग्ज्ञान जरूर होता है। इस का फलितार्थ यह है कि सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन भिन्न नहीं है, अर्थापत्ति से सिद्ध होता है कि विशिष्ट (यानी अनेकान्तगर्भित) रुचि यह ज्ञान स्वरूप अवबोध का ही एक स्वभाव है।। (इस तरह मिथ्यादर्शन भी मिथ्याज्ञान से एकात्मक हो सकता है।)।।३३।। [ केवलज्ञान एकान्त से अनुत्पाद स्वरूप भी नहीं । 30 केवलज्ञान-केवलदर्शन अभेदवाद की चर्चा संपूर्ण हुई। ३४ वीं गाथा से सूत्रकार यह दिखाना चाहते हैं कि केवलज्ञान एकान्ततः उत्पाद-व्ययरहित नहीं है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534