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खण्ड-४, गाथा-१८/१९, ज्ञान-दर्शनभेदाभेदविमर्श
४८५ प्रतिभासन्ते। न च ते तथैव व्याख्येयाः प्रमाणबाधनात्। तस्मात् अर्थगत्यैव = सामर्थ्य नैव तेषां व्यक्तिं = सकलवस्तुव्याप्यनेकान्तात्मकैककेवलावबोधप्रभवद्वादशांगैकश्रुतस्कन्धाऽविरोधेन व्याख्यां ज्ञको = ज्ञाता करोति। श्रुतावधिमनःपर्यायकेवली त्रिविधो “जं समयं पासइ नो तं समयं जाणइ"। ( ) न त्वेवं केवलकेवली, तस्याऽसर्वज्ञताप्राप्तेः - इति सूरेरभिप्रायः ।।१८।।
यद्यक्रमोपयोगद्वयात्मकमेकं केवलम् किमिति मनःपर्यायज्ञानवत् तद् ज्ञानत्वेनैव न निर्दिष्टम् ? 5 तस्मात् “केवलणाणे केवलदसणे' ( ) इति भेदेन सूत्रनिर्देशात् क्रमेण युगपद्वा भिन्नमुपयोगद्वयं केवलावबोधरूपम् - इत्याशंक्याह(मूलम्-) जेण मणोविसयगयाण दंसणं णत्थि दव्वजायाण ।
तो मणपज्जवणाणं णियमा णाणं तु णिद्दिष्टुं ।।१९।। (व्याख्या) यतो मनःपर्यायज्ञानविषयगतानां परमनोद्रव्यविशेषाणां विशेषरूपतया बाह्यस्य चिन्त्यमानस्य 10 की व्यक्ति यानी व्याख्या, विरोध न हो इस ढंग से करनी चाहिये । “विरोध न हो' इस का मतलब यह है कि केवलज्ञानरूप बोध अनेकान्तात्मक यानी सर्वत्र अनेकान्तदृष्टा होता है, अनेकान्त सर्व पदार्थों में व्यापकरूप से अनुस्यूत होता है, केवलज्ञानस्वरूप बोध एक ही होता है एवं वह सर्वपदार्थव्यापि अनेकान्तसिद्धान्त से पूर्णतः व्याप्त होता है। ऐसे केवलज्ञानस्वरूपबोध से ही द्वादशांग श्रुत का जन्म होता है। वह श्रुत पृथक् पृथक् असंकलित तन्तुओं के जैसा नहीं होता किन्तु परस्पर संबद्ध अखंड 15 एक महावस्त्रमय महाश्रुतस्कन्धरूप होता है। (अर्थात् हजारो ताने-बाने से व्याप्त एक महाकाय वस्त्र की तरह होता है। अत एव उस के एक तन्तु से सम्बद्ध कोई भी परिकर्म पूरे वस्त्र को आँच न आवे इस ढंग से करना पडता है इसी तरह) उस के एक एक सूत्र कि व्याख्या भी पूरे श्रुतस्कन्ध के अन्य सूत्रों के साथ ‘विरोध न हो' इस ढंग से ही करनी चाहिये। ग्रन्थकर्ता आचार्य का इस गाथा से सूचित अभिप्राय यह है कि जैसे श्रुतकेवली, अवधि केवली और मनःपर्याय केवली ये तीन 20 केवली 'जिस समय देखते हैं उस समय जानते नहीं हैं (यह सच है किन्त केवलज्ञानकेवली में ऐसा नहीं होता, अन्यथा उस की सर्वज्ञता को जफा पहुँचेगी।।१८।। (मतलब, जं समयं... सूत्र की व्याख्या केवलज्ञान प्रतिपादक सूत्र वाच्य सर्वज्ञता से विरोध हो इस ढंग से नहीं करनी चाहिये) ।।१८।।
अवतरणिका :- केवल अक्रमिक उपयोगद्वयात्मक एक ही है तो क्यों उस का निर्देश सूत्रों में मनःपर्यायज्ञान की तरह सिर्फ ज्ञानत्वरूप से ही न हुआ ? यतः सिर्फ ज्ञानत्वेन ही निर्देश न हो 25 कर आगमों में 'केवलज्ञान- केवलदर्शन' इस तरह पृथक् पृथक् निर्देश हुआ है इस से फलित होता है केवल बोधस्वरूप एक नहीं किन्तु दो पृथग् पृथग् उपयोग हैं चाहे एकसाथ होते हो या क्रमशः - इस आशंका के उत्तर में १९ वीं गाथा में आचार्य कहते हैं -
[ मनःपर्यवज्ञान के विषयों का दर्शनबोध क्यों नहीं - उत्तर ] गाथार्थ :- यतः मन के विषयभूत द्रव्य पदार्थों का दर्शन ही नहीं होता, इस लिये अवश्यमेव 30 मनःपर्यायज्ञान का ज्ञानरूप में ही निर्देश हुआ है।।१९।।
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