Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 503
________________ ४८४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ अवयवाभावे तद्रूपस्याऽसम्भवात्। न च तद्वयातिरिक्तविशेषरूपम् असदविशेषप्रसङ्गात् । न चैकान्तव्यावृत्तोभयरूपम् उभयदोषानतिक्रमात्। न चानुभयस्वभावम् असत्त्वप्रसक्तेः। न च ग्राह्यग्राहकविनिर्मुक्ताद्वयस्वरूपम् तथाभूतस्यात्मनः कदाचिदप्यननुभवात् सुषुप्तावस्थायामपि न ग्राह्य-ग्राहकस्वरूपविकलमद्वयज्ञानमनुभूयते ।।१७।। ज्ञान-दर्शनोपयोगद्वयात्मकैककेवलोपयोगवादी स्वपक्षे आगमविरोधं परिहरनाह(मूलम्) परवत्तव्वयपक्खाअविसिट्ठा तेसु तेसु सुत्तेसु। अत्थगईअ उ तेसिं वियंजणं जाणओ कुणइ ।।१८।। (व्याख्या) परैः = वैशिषिकादिभिर्यानि वक्तव्यानि = प्रतिपाद्यानि तेषां पक्षाः = अभ्युपगमा: “युगपद् ज्ञानानुत्पत्तिः” ( ) “नाऽगृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः" ( ) इत्यादयः, तैरविशिष्टाः = अभिन्नाः 10 भगवन्मुखाम्भोजनिर्गतेषु तेषु तेषु सूत्रेषु “जं समयं पासइ णो तं समयं जाणइ” ( ) इत्यादिषु अभ्युपगमा: हैं - विशेष अवयरूप है या अवयवीरूप ? दोनों में से एक भी निर्दोष नहीं है। अवयवात्मक नहीं है, क्योंकि अवयवी के विना अवयव किस का ? bअवयवीरूप भी नहीं है क्योंकि अवयव के विना उस का संभव ही नहीं है। यदि कहें कि - ‘अवयव-अवयविभाव रहित ही विशेषरूप अद्वैत मानेंगे' – तो ऐसा अव अवयविभाव रहित तो असत् खपुष्पादि ही होते हैं, तो आप का विशेष भी 15 उस के बराबर हो कर रहेगा। तथा ३-एकान्तभिन्न सामान्य-विशेषोभयरूप भी नहीं है क्योंकि उभयपक्ष कथित दोष यहाँ इकट्ठे हो जायेंगे। ४-एकान्त अनुभयस्वरूप तो खपुष्पादिवत् असत् होता है। यदि एकान्त अद्वैत ऐसा है जो न तो ग्राह्य है न किसी का ग्राहक है - तो अनुभव विरोध होगा क्योंकि तथाप्रकार की वस्तु का या आत्मा का किसी को अनुभव ही नहीं है, अनुभव के विना कोई भी पदार्थ मान्य नहीं होता। सुषुप्त अवस्था में भी ग्राह्य-ग्राहक स्वरूपविनिर्मुक्त अद्वैत ज्ञान का 20 किसी को भी अनुभव नहीं होता ।।१७।।। [अन्यदार्शनिक सूत्रों का सादृश्य, फिर भी अर्थ में विशेषता ] अवतरणिका :- ज्ञान-दर्शन उपयोगद्वय से अभिन्न एक ही केवल उपयोग है इस पक्ष के वादी, अपने पक्ष में प्रसञ्जित आगम के विरोध का निराकरण करते हुए कहते हैं - गाथार्थ :- तत्तत् सूत्रों में परकीय वक्तव्य पक्ष अभिन्नता है (सदृश अभिप्राय हैं।) ज्ञाता (पुरुष) 25 अर्थसामर्थ्य से उन की व्यक्ति = व्याख्या करते हैं।।१८।। व्याख्यार्थ :- पर यानी वैशेषिकादि जैनेतर दर्शन उन के सिद्धान्त, उदा. “एकसाथ अनेकज्ञान उत्पन्न नहीं होते” तथा “विशेषण अग्राहकबुद्धि विशेष्य ग्राहक नहीं होती” – इत्यादि की, भगवान् के मुखकमल से प्रस्फुटित तत्तत् सूत्र – उदा. “जं समयं ...जिस समय देखता है उस समय नहीं जाणता है।” इत्यादि तत्तत् सूत्रों से (वैशेषिकादिमत से) अभिन्नता यानी सदृश अभिप्राय प्रतिभासित होते हैं। 30 वैशेषिकादि की तरह ही अपने (जैन के) सदृश प्रतिभासित सूत्रों की व्याख्या करना मुनासिब ___ नहीं है क्योंकि वहाँ प्रमाणबाध है। अत एव अर्थसामर्थ्य (अर्थ की वास्तविकता) के आधार पर उन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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