Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 512
________________ खण्ड - ४, गाथा - ३०, केवलभेदाभेदविमर्श केवलावबोधस्तु ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयात्मको ज्ञानमेव सत् दर्शनमप्युच्यते, इत्याह(मूलम् ) जं अप्पुट्टे भावे जाणइ पासइ य केवली णियमा । तम्हा तं णाणं दंसणं च अविसेसओ सिद्धं । । ३० ।। = 5 ( व्याख्या) यतोऽस्पृष्टान् भावान् नियमेन् अवश्यंतया केवली चक्षुष्मानिव पुरःस्थितं चक्षुषा पश्यति जानाति चोभयप्राधान्येन तस्मात् तत् केवलावबोधस्वरूपं ज्ञानमप्युच्यते दर्शनमप्यविशेषतः उभयाभिधाननिमित्तस्याऽविशेषात् न पुनर्ज्ञानमेव, सदविशेषतोऽभेदतो दर्शनमिति सिद्धम् । यतो न ज्ञानमात्रमेव तत्, नापि दर्शनमात्रं केवलम् नाप्युभयाक्रमरूपं परस्परविविक्तम्, नापि क्रमस्वभावम्, अपि तु ज्ञानदर्शनात्मकमेकं प्रमाण् अन्यथोक्तवत् तदभावप्रसङ्गात् । छद्मस्थावस्थायां तु प्रमाण- प्रमेययोः सामान्य- विशेषात्मकत्वेऽप्यनपगतावरणस्यात्मनो दर्शनोपयोगसमये ज्ञानोपयोगस्याऽसम्भवाद् अप्राप्यकारिनयन - मनःप्रभवार्थावग्रहादिमतिज्ञानोपयोगप्राक्तनी अवस्था अस्प (स्पृ) 10 ष्टावभासिग्राह्य-ग्राहकत्वपरिणत्यवस्था व्यवस्थितात्मप्रबोधरूपा चक्षुरचक्षुर्दर्शनव्यपदेशमासादयति । द्रव्य[ केवलबोध भी उभयोपयोगात्मक एक है ] अवतरणिका :- केवलावबोध भी ज्ञान- दर्शनोपयोगोभयात्मक होने से ज्ञानरूप होते हुए 'दर्शनरूप' भी कहा जाता है यही कहते हैं - — = गाथार्थ :- केवली अवश्य अस्पृष्ट भावों को यतः जानता है और देखता है, अत एव कोई 15 विशेष भेद न होने से ज्ञानरूप और दर्शनरूप भी सिद्ध है ।। ३० ।। व्याख्यार्थ :- नेत्रशाली व्यक्ति जैसे समक्षवर्त्ती वस्तु को चक्षु से देखता है और जानता भी है क्योंकि उस के चाक्षुष बोध में दोनों ही प्रधानतया संमिलित है, उसी तरह केवली भी अवश्य अस्पृष्ट भावों को जानते हैं और देखते हैं । अत एव वह केवलावबोध 'ज्ञान' भी कहा जाता है 'दर्शन' भी, क्योंकि ज्ञान का प्रवृत्तिनिमित्त परिच्छेदात्मकत्व और दर्शन का प्र०नि० अस्पृष्टत्व दोनों ही निर्विशेषरूप 20 से केवलावबोध में विद्यमान है, अतः अकेला ज्ञान ही है ऐसा नहीं । ज्ञानस्वरूप होते हुए भी अविशेषयानी अभेद होने से दर्शनरूप भी सिद्ध है। ४९३ न तो वह ज्ञानमात्ररूप है, न तो सिर्फ दर्शनमात्र है, न तो अक्रमिक ( युगपद्) द्वित्वसंख्यायुक्त परस्पर व्यावृत्तस्वरूप है, न कि क्रमिक स्वभाववाले हैं। किन्तु एक ही है इसलिये अक्रमिक ज्ञानदर्शनोभयात्मक एक प्रमाणस्वरूप है । ऐसा न मानने पर उस की सत्ता का लोप प्रसक्त होगा, 25 जो पहले कहा जा चुका है। Jain Educationa International [ चक्षुदर्शनादि नवविध उपयोग की व्याख्या ] व्याख्याकार जैनमतानुसार क्रमश नव उपयोगों की व्याख्या करते हैं (१-२) चक्षु अचक्षु दर्शन :- जैनमतानुसार प्रमाण या प्रमेय सामान्यविशेषोभयात्मक होते हैं । तथापि छद्मस्थावस्था में आवरणक्षय न होने से आत्मा को जब दर्शनोपयोग प्रवर्त्तता है तब ज्ञानोपयोग का 30 होना असम्भव है, अतः दर्शन ज्ञान से भिन्न होता है । अप्राप्यकारी चक्षुरिन्द्रिय एवं मन के व्यापार For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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