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खण्ड-४, गाथा-२४/२५, ज्ञान-दर्शनभेदाभेदविमर्श
४८९ सति प्राप्तम् न चैतद् युक्तम् । ‘स द्विविधोऽष्ट-चतुर्भेदः' (तत्त्वार्थ. २-९) इति सूत्रविरोधात् ।।२३।। ___ एवं शेषेन्द्रियदर्शनेष्ववग्रह एव दर्शनम् इत्यभ्युपगमेन मतिज्ञानमेव तदिति। न च तद् युक्तम् पूर्वोक्तदोषानतिवृत्तेः । अथ तेषु श्रोत्रादिष्विन्द्रियेषु दर्शनमपि भवत् तद् ज्ञानमेव मात्रशब्दस्य दर्शनव्यवच्छेदकत्वात् । अत एव तत्र ‘श्रोत्रज्ञानम्' इत्यादिव्यपदेश उपलभ्यन्ते 'श्रोत्रदर्शनम् घ्राणदर्शनम् इत्यादिव्यपदेशस्तु नागमे क्वचित् प्रसिद्धः तर्हि चक्षुष्यपि तथैव गृह्यताम् ‘चक्षुर्ज्ञानम्' इति न तु 'चक्षुर्दर्शनम्' इति। अथ तत्र 5 दर्शनम् इतरत्रापि तथैव गृह्यताम्। 'ज्ञान-दर्शनयोरुपलम्भरूपत्वे अविशेषप्रसङ्गस्तयोः' इति चेत् ? एवमेतत्तद्रूपतया, स्वभावभेदात् तु भेद इति ।।२४।। नन्ववग्रहस्य मतिभेदत्वात् मतेश्च ज्ञानरूपत्वात् अवग्रहरूपस्य दर्शनस्याभाव एव भवेत् ? – उच्यते (मूलम्) णाणं अपुढे अविसए य अत्थम्मि दसंणं होइ।
___ मोत्तूण लिंगओ जं अणागयाईयविसएसु।।२५।। (व्याख्या) अस्प(?स्पृ)ष्टेऽर्थरूपे चक्षुषा य उदेति प्रत्ययः स चक्षुर्दर्शनं ज्ञानमेव सत्, इन्द्रियाणामविषये च परमाण्वादौ अर्थे मनसा ज्ञानमेव सद् अचक्षुर्दर्शनम्, मुक्त्वा मेघोन्नतिरूपाद् लिङ्गाद् भविष्यद् वृष्टौ है ऐसा प्रतिवादी मानेंगे तो मतिज्ञान ही (यानी उस का एक प्रकार ही) दर्शन है यह फलित हुआ। यह नितान्त गलत है क्योंकि तत्त्वार्थसत्र में (२-९ में) उपयोग का साकार-अनाकार दो भेद बता कर साकार के आठ और दर्शन (अनाकार) के चार भेद दिखाया है - उस के साथ विरोध होगा ।।२३।। 15
चक्षु इन्द्रिय की तरह अन्य इन्द्रियों का अवग्रह भी अवश्य दर्शनरूप मानना पडेगा, क्योंकि अवग्रह मतिज्ञान ही है। वह योग्य नहीं है क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र के साथ विरोध होता है। यदि कहा जाय - 'श्रोत्रादि इन्द्रिय का दर्शन होते हुए भी 'ज्ञान' ही कहना उचित है, गाथा (२४) में ज्ञानमात्र में 'मात्र' शब्द से दर्शन का व्यवच्छेद किया गया है। अत एव 'श्रोत्रज्ञान' इत्यादि शब्दप्रयोग चलता है 'श्रोत्रदर्शन-घ्राणदर्शन' इत्यादि शब्दप्रयोग आगमों में कही भी प्रसिद्ध नहीं है।' - तो फिर 'चक्षुज्ञान' 20 को मानो चक्षुदर्शन को मत मानो। यदि वहाँ चक्षुदर्शन मान्य है तो अन्य इन्द्रियों का भी दर्शन स्वीकार लो। ‘ज्ञान और दर्शन को सिर्फ उपलम्भात्मक ही मानेंगे तो दोनों में कोई फर्क नहीं रहेगा'ऐसी शंका मत करना, उपलम्भसामान्य स्वरूप से उन में कोई फर्क नहीं है, हाँ सामान्य-विशेषरूप स्वभावभेद से फर्क जरूर है।।२४ ।। [ अवग्रह मतिज्ञान का भेद है तो 'दर्शन' से नया क्या लेना ? ]
25 ____ अवतरणिका :- प्रश्न अवग्रह तो मति का भेद है, मति ज्ञानरूप है, तो फिर अवग्रहरूप दर्शन के नाम से बचा क्या ? – उत्तर में गाथा २५ प्रस्तुत है -
___ गाथार्थ :- अस्पृष्ट/अविषयभूत अर्थ संबंधी (प्रतीति) दर्शन होता है। भावि आदि विषयों संबंधी लिंग से होनेवाली (प्रतीति) को छोड कर ।।२५।।
व्याख्यार्थ :- जैन दर्शन में चक्षु को और मन को अप्राप्यकारी बताया गया है। अतः चक्षु से 30 अस्पृष्ट रूपादिअर्थ के बारे में जो प्रतीति होती है उसे ज्ञानरूप होते हुए भी चक्षुदर्शन कहा जाता है। एवं, इन्द्रियों की जहाँ पहुँच नहीं है ऐसे सूक्ष्म परमाणु आदि विषयों के बारे में मन से होनेवाले
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