Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 491
________________ 5 सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - २ एकेन्द्रियादिसहचरितत्वनिरन्तराहारोपदेशत्वाद्यन्तरेणापि “ विग्गहगइमावण्णा".. ( ) इत्यादिसूत्रसंदर्भस्य केवलिभुक्तिप्रतिपादकस्यागमे सद्भावात् । न च तस्याऽप्रामाण्यम् सर्वज्ञप्रणीतत्वेनाभ्युपगतसूत्रस्येव प्रामाण्योपपत्तेः। न च तत्प्रणीतागमैकवाक्यतया प्रतीयमानस्याप्यस्याऽतत्प्रणीतत्वम् अन्यत्रापि तत्प्रसक्तेः । यदपि - ‘शरीरप्रायोग्यपुद्गलग्रहणमाहारत्वेनाभिमतमत्र' (४६३-८) इत्यभिधानम् तदप्यसंगतम्, विग्रहगत्यापन्न-समवहतकेवल्ययोगिसिद्धव्यतिरिक्ताशेषप्राणिगणस्य शरीरप्रायोग्यपुद्गलग्रहणमेवाहारशब्दवाच्य मिह सूत्रेऽभिप्रेतम् - इति कोऽन्यः सामयिकशब्दविदो भवतोऽभिधातुं समर्थः ? - यदपि— ‘निरन्तराहारित्वं केवलिनस्तेनाहारेण समुद्घातक्षणत्रयमपहाय भवेत्' – (४६३-९) इत्युक्तम् तदप्यसंगतम्; विशिष्टाहारस्य विशिष्टकारणप्रभवत्वात् तस्य च प्रतिक्षणमसंभवात् । यस्तु पुद्गलादानलक्षणो 10 ४७२ योग्य पुद्गल के ग्रहण (लोमाहार) को ले कर है... इत्यादि” वह भी अयुक्त है। कारण, जिस सूत्र में एकेन्द्रियादि सहपठितत्व एवं निरन्तराहार का निरूपण है वह एक मात्र सूत्र ही हमारा आधार है ऐसा नहीं है, जिस में एकेन्द्रियादि सहपठितत्व एवं निरन्तराहार का निर्देश नहीं है ऐसा भी विग्गहगइमावण्णा...इत्यादि सूत्र संदर्भ आगमों में उपलब्ध है जो केवली के कवलाहार का समर्थक है । उस सूत्र संदर्भ का भाव यह है कि विग्रहगतिप्राप्त जीव, समुद्घातापन्न केवली, अयोगी तथा सिद्ध इतने को छोड़ कर शेष जीवमात्र आहारक हैं। यह सूत्र अप्रमाण नहीं है, सर्वज्ञभाषितसूत्र 15 की तरह इस का भी प्रामाण्य सुघटित है । सर्वज्ञभाषितागम के साथ इस सूत्र की एकवाक्यता सुप्रतीत होने पर भी यदि इस सूत्रगाथा को प्रमाण न मानी जाय तो अन्य सर्वज्ञभाषित सूत्रों की प्रमाणता भी लुप्त हो जायेगी । ( एकवाक्यता का मतलब यह है सर्वज्ञभाषित गणधरग्रथित अन्य सूत्रों में जैसे आहारी- अनाहारी आदि विषयों का निर्दोष निरूपण है वैसे ही इस सूत्रगाथा का विषय भी उन से संवादी है, विसंवादी नहीं है ।) प्रस्तुत सूत्रगाथा में कहीं भी एकेन्द्रियादि का या निरन्तराहार का 20 उल्लेख नहीं है, अतः समुद्घातापन्न और अयोगी केवली को छोड़ कर शेष सयोगी केवली में आहारकता कवलाहार से पूर्ण संगत होती है । दिगम्बर यहाँ जो कहते हैं कि ( ४६३-३१) 'यहाँ भी देहप्रायोग्यपुद्गलग्रहणस्वरूप आहार ही विवक्षित है न कि कवलाहार ।' वह भी अयुक्त है । कारण, ऐसी विवक्षा मानने पर तो उक्त सूत्रगाथा के लिये दिगम्बरों को यही कह देना चाहिये कि कवलाहार किसी भी जीव को नहीं होता, विग्रहगतिप्राप्त 25 समुद्घातापन्नकेवली - अयोगिकेवली और सिद्धों को छोड़ कर शेष सभी जीव शरीरयोग्यपुद्गलग्रहण स्वरूप आहार से ही आहारक होते हैं। ऐसा प्रलाप तो दिगम्बर ही कर सकते हैं (जो शरीरयोग्यपुद्गलग्रहण से ही सभी जीवों को आहारक कहने का साहस करते हैं ।) उन के अलावा ऐसा कौन शास्त्रीयशब्दार्थवेत्ता ऐसा कहने का साहस करेगा ? - - दिगम्बरने जो यह कहा था (४६४-८) 'केवली में कवलाहार से आहारकता मानेंगे तो 30 निरन्तराहारसूचक सूत्र के द्वारा केवलीसमुद्धात की मध्यवर्त्ती तीन क्षणों को छोड़ कर शेष पूरे काल Jain Educationa International . विग्गहगइमावण्णा केवलिणो समुहया अयोगी वा । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारगा जीवा ।। इति गाथा सूत्रकृत्सूत्रे द्वितीयश्रुतस्कन्धे तृतीयाध्ययनटीकायामृद्धृता श्री शीलाङ्काचार्येण व्याख्याता च । इति पूर्वसम्पादकौ । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.

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