Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 498
________________ ४७९ खण्ड-४, गाथा-१५, केवलिकवलाहारविमर्श प्रतिज्ञानेन ? तच्च संवादित्वमतीन्द्रियार्थविषयस्यागमस्याप्तप्रणीतत्वाद् निश्चीयते तत्प्रणीतत्वनिश्चयश्चागमैकवाक्यतया व्यवस्थितस्य केवलिभुक्तिप्रतिपादकसूत्रसमूहस्य सिद्ध एवेति भवत्यागमादपि केवलिभुक्तिसिद्धिः । तेन 'सूत्रभेदक्लृप्तिः कवलाहारपरिकल्पनायां केवलिनः' इति दोषाभावः, यथोक्तन्यायात् तत्सिद्धेः । यदपि- 'केवली प्रकृताहारमश्नन्...' इत्यादि पक्षत्रयमुत्थाप्य तत्र दोषाभिधानम् (४६६-७) तदप्यसंगतम् । यतः प्रथमपक्षे बुभुक्षयाऽश्नतो दुःखिताप्रसक्तिर्दोषः उद्भावितः स चादोष एव, असातानुभवस्य वेदनीय- 5 कर्मप्रभवस्यायोग्यवस्थाचरमक्षणं यावत् संभवात्, तत्कारणस्यासातवेदनीयकर्मोदयस्याऽप्रतिबद्धत्वात् अविकलकारणस्य च कार्यस्योत्पत्त्यप्रतिषेधात्, अन्यथा तस्य तत्कारणत्वायोगात्। न च दग्धरज्जुसंस्थानीयत्वात् तस्य स्वकार्याऽजनकत्वम् तत एव सातवेदनीयस्यापि स्वकार्याऽजनकत्वप्रसक्तेः सुखानुभवस्यापि भगवत्यभावप्रसंगात्। यथा च दग्धरज्जुसंस्थानीयायुष्ककर्मोदयकार्यं प्राणादिधारणं भगवति तथा प्रकृतमप्यभ्युपगम्यतां विशेषाभावात् । न च बुभुक्षाया दुःखरूपत्वाद् भगवत्यसंभवः प्रतिपादयितुं शक्य: 'एकादश 10 जिने' (तत्त्वार्थ ९-११) इति सूत्रात् क्षुदादिपरिषहैकादशकस्य केवलिनि सिद्धेः। ___ यदपि (४६७-१) - ‘अनन्तवीर्यत्वं प्रकृताहारमन्तरेणापि शरीरस्थितिकारणमभिधीयते' - तदपि छद्मस्थावस्थायां भगवत्यपरिमितबलश्रवणात् समस्त्येव । न च प्रकृताहारमन्तरेण तत्तस्यामवस्थायां शरीरस्थितिआगमिक सिद्धान्तों के संवादित्व का निश्चय हरहमेश अतीन्द्रियार्थनिरूपक शास्त्र के आप्तरचितत्व के ऊपर ही निर्भर रहेगा। 'कोई भी सिद्धान्त आप्तरचित है' ऐसा निर्णय भी तभी होगा जब उसकी आगम के 15 साथ एकवाक्यता रहेगी। प्रस्तुत में केवलीभुक्ति बोधक सूत्रवृंद में आगम-एकवाक्यता सिद्ध ही है, अतः आगम से केवली के कवलाहार की सिद्धि भी निर्विवाद है। अत एव एकेन्द्रियादि में लोमाहार से आहारकता स्वीकारने पर भी केवलज्ञानी में आहारकता की संगति के लिये पूर्वोक्त प्रमाणों के आधार पर सूत्रभेद के द्वारा कवलाहार की कल्पना करने में कोई दोष नहीं है, क्योंकि पूर्वोक्त युक्तिसमूह से वही सिद्ध होता है। [बुभुक्षाविकल्प में दोषापादन का निरसन ] कवलाहार के प्रयोजन पर बुभुक्षा, शरीरस्थिति और स्वभाव ऐसे तीन विकल्प (४६६-२७) का उद्भावन कर के उन में दिगम्बरने जो दोषापादन किया है वह भी गलत है। बुभुक्षाशमन के लिये भोजन करने पर केवली में जो दुःखित्वप्रसञ्जनात्मक दोष बताया है वह दोष नहीं वास्तविकता है, क्योंकि केवली को अयोगीअवस्था के चरमसमय तक वेदनीय (असाता) कर्म जन्य असाता का अनुभव संभवित है। केवली में असातानुभवसम्पादक असातावेदनीय कर्म का विपाकोदय प्रतिबन्धित नहीं है। 25 जिस कार्य के कारण परिपूर्ण हैं उसके द्वारा होनेवाली कार्योत्पत्ति को कोई रोक नहीं सकता। परिपूर्ण कारण से यदि स्वकार्योत्पत्ति नहीं होगी तो उस को 'कारण' कौन कहेगा ? – 'केवली का वेदनीय कर्म दग्धरज्जुतुल्य है, दग्ध रज्जु से किसीको बन्धन की पीडा नहीं हो सकती। ऐसे ही दग्धरज्जुतुल्य वेदनीयकर्म भी पीडात्मक स्वकार्य करने में असमर्थ हो जाता है' - इस दिगम्बर युक्ति का उत्तर यह है कि यदि वेदनीय कर्म से पीडा नहीं होगी तो सातावेदनीयकर्मोदय से भी सातास्वरूप स्वकार्य 30 नहीं हो पायेगा। फलतः दुःखिता की तरह भगवान में सुखिता का भी दुष्काल हो जायेगा। सच तो यह है कि जैसे दग्धरज्जुतुल्य आयुष कर्म के उदय का प्राणधारणरूप कार्य निर्बाध होता है (वेदनीय 20 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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