Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 500
________________ ४८१ खण्ड-४, गाथा-१५/१६, केवलिकवलाहारविमर्शपूर्णता यदपि (४६७-२)- 'बुभुक्षया देहं तिष्ठापयिषोः क्लेशवत्त्वे न कश्चिद् विशेष:'- तदप्यसारम् क्लेशस्य भगवत्यद्याप्यामुक्तिगमनात् सर्वथाऽनिवृत्तेः। तत्स्वभावपरिकल्पनया दोषप्रसञ्जनमभ्युपगमादेव निरस्तम् । तदेवं बाधकप्रमाणाभावात् साधकस्य च सद्भावात् सिद्धा केवलिभुक्तिः - इत्यलं प्रसक्ताऽनुप्रसक्त्या।।१५।। क्रमेण युगपद्वा परस्परनिरपेक्षस्वविषयपर्यवसितज्ञानदर्शनोपयोगी केवलिन्यसर्वार्थत्वाद् मत्यादिज्ञान चतुष्टयवद् न स्तः इति दृष्टान्तभावनायाह(मूलम्) पण्णवणिज्जा भावा समत्तसुयणाणदंसणाविसओ। ओहि-मणपज्जवाण उ अण्णोण्णविलक्खणा विसओ।।१६।। (व्याख्या) मति-श्रुतयोरसर्वपर्यायसर्वद्रव्यविषयतयाऽभिन्नार्थत्वे श्रुतस्याऽसर्वार्थग्रहणात्मकत्वभावनया मतिरपि तथा भावितैवेति श्रुतज्ञानस्यैव गाथायामसर्वार्थत्वभावना प्रदर्शिता। प्रज्ञापनीयाः = शब्दाभिलाप्या भावाः [ केवली में भूख-प्यासादिक्लेश के अभाव का कथन सारहीन ] ___ यह जो कहा था (४६७-१३) - 'बुभुक्षा की तरह शरीरस्थिति बनाये रखने की प्रवृत्ति भी क्लेश ही है - केवली में क्लेश नहीं हो सकता' – वह तो सारहीन कथन है। जब तक भगवान् का मोक्ष नहीं होता तब तक केवली में भूख-प्यास-शरीरक्लमादि क्लेशों की सर्वथा निवृत्ति तो अशक्य ही है क्योंकि वेदनीय एवं नाम-कर्म विपाकोदयी है। उस में केवली को कोई न्यूनता या कलंक नहीं लग जाता। (अन्यथा शरीरसंग भी स्वयं क्लेशरूप होने से केवली को कलंकित मानना पडेगा।) 15 इस प्रकार दिगम्बर के तीन प्रयोजन प्रश्नों में से भूखशमन और शरीरस्थिति दोनों का निरसन हो गया। तीसरा प्रश्न था, क्या स्वभाव से कवलाहार करते हैं - इस विकल्प का हमें स्वीकार ही नहीं है अतः उस में जो स्वभावतः अशिष्टव्यवहारप्रवृत्ति का दोषापादन किया था वह भी निरस्त हो जाता है। निष्कर्ष - केवली-कवलाहार में कोई बाधक प्रमाण है नहीं, साधक आगमवचन के प्रमाण बहुत 20 हैं अतः केवलिभुक्ति निर्बाध सिद्ध हो जाती है। और ज्यादा तर्क-प्रतितर्क करने की जरूर नहीं है।।१५।। [मति और श्रुत ज्ञान समविषय, अवधि-मनःपर्याय भिन्नविषय ] १६ वीं कारिका में एक दृष्टान्तभावना कही जा रही है - जैसे क्रमशः अथवा एकसाथ मति आदि चार ज्ञानों का उपयोग केवली में नहीं हो सकता क्योंकि वे असम्पूर्णार्थग्राही हैं, वैसे ही परस्पर निरपेक्ष अपने अपने विषय में केन्द्रित ज्ञान-दर्शन उपयोग द्वय भी अन्योन्य असम्पूर्णार्थग्राही होने से 25 केवली में वे एकसाथ या क्रमशः नहीं घट सकते - गाथार्थ :- समस्तश्रुतज्ञानसम्बन्धिदर्शना का विषय (सिर्फ) शब्दवाच्य भाव ही हैं। अवधि एवं मनःपर्यायज्ञान का विषय तो अन्योन्य भिन्नस्वरूपवाले (भाव) हैं।।१६।। व्याख्यार्थ :- (यहाँ पूर्वार्ध में ज्ञान शब्द वाक्य के लिये और दर्शनाशब्द बुद्धि के लिये प्रयुक्त है यह ध्यान में लेना) गाथा में तो श्रुतज्ञान के असम्पूर्णार्थकत्व की ही भावना प्रदर्शित की गयी 30 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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