Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 495
________________ ४७६ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ तच्छरीरस्य सूत्रभेदकरणकारणम् प्रकृताहारमन्तरेण तत्स्थितेरसंभवस्य प्रतिपादनात्। भूयांसि च प्रकृताहारप्रतिपादकानि केवलिनः सूत्राण्यागमे उपलभ्यन्ते प्रतिनियतकालप्रकृताहारनिषेधकानि च। यथा प्रथमतीर्थकृत एव चतुर्दशभक्तनिषेधेनाष्टापदनगे दशसहस्रकेवलिसहितस्य निर्वाणगतिप्रतिपादकानि सूत्राणि। *यदपि (४६४-६) 'अतिशयदर्शनान्निरवशेषदोषावरणहाने....' इत्याद्याशंक्य विकल्पद्वयमुत्थाप्य 5 परिहतम् (४६५-१) तत्रापि नास्माभिः सर्वज्ञत्वादेरभावः साध्यते येन धर्मिणोऽभावात् प्रकृतसाध्यसिद्धिर्न भवेत्, किन्तु यद्यतिशयदर्शनान्नैर्मल्यप्रतिपत्तिवद् आत्यन्तिकी शरीरस्थितिस्तस्य साध्येत तदा मुक्तेरभाव: तथा दिगम्बरने जो यह कहा था (४६४-२८) - ‘एकेन्द्रिय से लेकर अयोगिपर्यन्त जीवों के लिये निरंतराहार का प्रतिपादक जो सूत्र है उस में एकेन्द्रियादि को लोमाहार एवं पंचेन्द्रियमनुष्य केवलीयों के लिये कवलाहार को ले कर सत्र के अर्थ में जो विभाजन किया जाय, उस में कोई कारण (= 10 प्रयोजन या निमित्त ही संभव नहीं' - वह भी असंगत है कवलाहार के विना केवली की शरीरस्थिति की अनुपपत्ति ही सूत्रभेद करने के लिये बडा निमित्त है। आगमों में सूत्रकृतांगादि में केवली के कवलाहार के सूचक अनेक सूत्र एवं नियतकालीन पच्चक्खाण (आहारत्याग) के सूचक भी अनेक सूत्र (कल्पसूत्रादि) उपलब्ध हैं। उदा. 'प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव १४ भक्त (भोजनटंक) का पच्चक्खाण कर के 'अष्टापद' संज्ञक पहाड के ऊपर दस हजार केवलियों के साथ मोक्ष में गये' ऐसा कल्पसूत्र में स्पष्ट कहा है। 15 सोचिये कि भगवान ऋषभदेव का केवलीपर्याय १००० वर्ष न्यून एक लाख पूर्व है - यदि केवलज्ञान होने के साथ ही उन्होंने भोजनत्याग कर दिया होता तो मुक्तिगमन अवसर में सिर्फ १४ भोजनटंक त्याग (छह दिन का ही अनशन) ही क्यों बताया ? छह दिन के अंतिम भोजनपच्चक्खाण से ही सूचित होता है कि उस के पहले के केवलीपर्याय में उन्होंने अवश्य भोजन किया होगा। [मुक्तिलोप की आशंका पर विकल्पद्वय का प्रत्युत्तर ] 20 दिगम्बर विद्वानने जो (४६५-१) हमारी ओर से यह आशंका खडी की थी – 'निरवशेष दोषावरणक्षय से शुद्धात्म स्वभावप्राप्ति की तरह दृश्यमाण अतिशय से केवली में कवलाहार के विना भी आत्यन्तिक शरीरस्थिति होगी तो केवली की मुक्ति भी नहीं होगी...' इत्यादि आशंका कर के क्या आप सर्वज्ञ की सत्ता का विरोध कर रहे हैं... (४६५-१८) इत्यादि दो विकल्प का उत्थान कर के उस का निरसन किया था... उस का श्वेताम्बर की ओर से यह प्रत्युत्तर है कि सर्वज्ञ की सत्ता का निरसन करने की हमारी 25 कोई चेष्टा ही नहीं है जिस से कि सर्वज्ञरूप पक्ष की असिद्धि होने से कवलाहारसाध्यसिद्धि व्यर्थ बन सके। हमने तो आप की मान्यता पर आपत्तिप्रदान के रूप में सिर्फ यह प्रसङ्गसाधन प्रस्तुत किया है कि नैर्मल्य (शुद्धात्मस्वभाव) प्राप्ति की तरह यदि आप (दिगम्बर) अतिशय के बल पर निर्भर करते हुए आत्यन्तिक शरीरस्थिति को सिद्ध करना चाहते हैं तो शरीरस्थिति सादि-अनन्त हो जाने से मोक्ष का लोप हो जायेगा। यह मोक्षोच्छेद का दोष आप की अभिप्रेत उस व्याप्ति के बल पर प्रसक्त किया गया है जिस 4. सूत्राणि चैतानि सूत्रकृताङ्गद्वीतीयश्रुतस्कन्धतृतीयाध्ययने, भगवतीसूत्रप्रथमशतक-प्रथमोद्देशके, प्रज्ञापनासूत्र-आहारपदे लभ्यन्ते यथाक्रमं पृ.३४२-३६०। पृ.१९-३० । पृ.४९८-५२४ । इति पूर्वसम्पादकीयटिप्पणी। *. श्रीकल्पसूत्रे (सू० २२७ मध्ये) 'उप्पिं अट्ठावयसेलसिहरंसि दसहिं अणगारसहस्सेहिं सद्धिं चोद्दसमेणं भत्तेणं अपाणएणं... जाव सव्वदुक्खप्पहीणे ।।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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