Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 485
________________ सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २ औदारिकशरीरस्य च निराहारस्य चिरतरकालस्थायिनः उत्तरकालमशेषकर्मक्षयाद् विनिवृत्तावस्ति साधनं सुनिश्चिताऽसम्भवद्बाधकप्रमाणत्वम् । ४६६ इदमेव च तत्त्वव्यवस्थायां सर्वत्राभ्युपगन्तव्यम् । न ह्यध्यक्षाद्यवगतस्याप्यर्थस्यैतदन्तरेण तत्त्वव्यवस्थितिः, अनुभूतस्यापि बाधक - प्रत्ययप्रवृत्तौ मिथ्यात्वरूपतया व्यवस्थापनात् । ततः सुनिश्चितासंभवद्5 बाधकप्रमाणत्वादेव प्रमाण- प्रमेयतत्त्वसिद्धि: - बाधकप्रमाणनिश्चयात् तद्विपरीतार्थप्रतिपत्तिः - उभयोरनिश्चये दृष्टश्रुतयोरर्थयोः संशीतिरिति व्यवस्था । सुनिश्चिताऽसंभवद्बाधकप्रमाणत्वं च प्रकृताहारवैकल्येऽपि सर्वज्ञौदारिकशरीरचिरस्थायित्वप्रतिपादकागमस्य समस्त्येवेति न किञ्चित् तस्य कवलाहारपरिकल्पनया । केवली च कवलाहारमश्नन् किं बुभुक्षया उत शरीरस्थित्यन्यथानुपपत्त्या आहोस्वित् स्वभावतो - ऽश्नातीति वक्तव्यम् । न तावदाद्य: पक्ष: बुभुक्षाया दुःखरूपत्वात् तन्मूलदोषराशिनिवृत्तौ तस्या असम्भवात् । 10 अनिवृत्तौ वा तत्प्रभवस्य दुःखसमूहस्य सद्भावे आत्यन्तिकसौख्यानुपपत्तिर्भगवति स्यात् । न च क्षुत्तुल्या 15 पुद्गल का कोई भी परिणाम ( चाहे वर्णादि हो चाहे संयोग ) असंख्य काल बीत जाने पर अवश्य विपरीत परिवर्तन को प्राप्त हो जाता है। दूसरी ओर, केवली की निराहार चिरतरकालस्थायी शरीर परिणति, सकल कर्म क्षीण हो जाने के उत्तरकाल में निवृत्त हो जाती है इस तथ्य का एक बलवत् साधन है सुनिश्चितरूप से बाधकप्रमाण का असंभव । [ सुनिश्चितरूप से - बाधक प्रमाण का असंभव बलवान् दिगम्बर ] यही एक ऐसा बलवत् साधन है जो सर्वत्र तत्त्वव्यवस्था करने में स्वीकारार्ह है। प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ज्ञात होने पर भी कोई भी अर्थ तब तक तात्त्विकरूप से सिद्ध नहीं हो सकता जब तक उस के लिये बाधक प्रमाण का असंभव सुनिश्चित न पर 'मिथ्या' घोषित हो जाता है। अतः प्रमाण- प्रमेय 20 के सुनिश्चय पर ही निर्भर है। बाधक प्रमाण के । अनुभवारूढ अर्थ भी बाधकप्रमाणग्रस्त हो जाने तत्त्वों की सिद्धि पूर्णतया बाधकप्रमाण के असंभव सद्भाव में, प्रतीयमान अर्थ के मिथ्यात्व का ग्रहण अभाव सुनिश्चित नहीं होगा, संशयग्रस्त होगा तो हो जाता है । यदि बाधक प्रमाण का सद्भाव या दृष्ट या श्रुत अर्थ भी संशयग्रस्त रहेगा। यही व्यवस्था न्यायक्षेत्र में है । केवली भगवंत में प्रकृत कवलाहार के विरह में भी औदारिक शरीर के चिरतरकालस्थायित्व का निर्देशक आगम भी बाधक प्रमाण के संभव से मुक्त है यह सुनिश्चित है, अत एव केवली के 25 कवलाहार की कल्पना मूल्यहीन I [ कवलाहार का तीन विकल्पों से निरसन दिगम्बर कहते हैं केवली को कवलाहार का प्रयोजन का कवलाहार के विना असंभव, स्वभावतः ? A प्रथम विकल्प उचित नहीं है बुभुक्षा तो दुःख ही है, केवली में दुःख का मूल दोषवृन्द 30 का उच्छेद हो चुका है अतः भूख का दुःख हो नहीं सकता। यदि दोषवृन्द पूर्णतया उच्छिन्न न होने का मानेंगे तो तज्जन्य दुःख समुदाय भी केवली में मान्य करना होगा, फलतः केवली में आत्यन्तिक सुख का आविर्भाव नहीं मान सकेंगे। भूख तो दुःख ही है इस में तो कोई संदेह नहीं, क्योंकि शास्त्रों - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only - - दिगम्बर ] क्या है ? बुभुक्षा, शरीरावस्थिति www.jainelibrary.org

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