Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 472
________________ खण्ड-४, गाथा-६/७, केवलद्वयभेदाभेदविमर्श ४५३ साद्यपर्यवसाने केवलज्ञानदर्शने, क्रमोपयोगे तु द्वितीयसमये तयोः पर्यवसानमिति कुतोऽपर्यवसितता ? तेन क्रमोपयोगवादिभिः सूत्रासादनाभीरुभिः “केवलणाणे णं भंते !” ( ) इत्यादि आगमे साद्यपर्यवसानताभिधानं केवलज्ञानस्य केवलदर्शनस्य च द्रष्टव्यम् = पर्यालोचनीयं भवति। सूत्रासादना चात्र सर्वज्ञाधिक्षेपद्वारेण द्रष्टव्या अचेतनस्य वचनस्याधिक्षेपाऽयोगात्। ___ न च द्रव्यापेक्षयाऽपर्यवसितत्वम् द्रव्यविषयप्रश्नोत्तराश्रुतेः। अथ भवतोऽपि कथं तयोरपर्यवसानता, 5 पर्यायाणामुत्पादविगमात्मकत्वात् ? न च द्रव्यापेक्षयैतदिति वाच्यम्, अस्मत्पक्षेऽप्यस्य समानत्वात्। 'तद्विषयप्रश्नप्रतिवचनाभावाद् न' इति चेत् ? तर्हि भवतोऽपि द्रव्यापेक्षयाऽपर्यवसानकथनमयुक्तम्। असदेतत्तयोर्युगपद् रूप-रसयोरिवोत्पादाभ्युपगमाद् न ऋजुत्व-वक्रतावत्। 'एवमपि सपर्यवसानता' इति चेत् ? न, कथंचित् केवलिद्रव्यादव्यतिरेकतस्तयोरपर्यवसितत्वात्। न च क्रमैकान्तेऽप्येवं भविष्यति अनेकान्तविरोधात् । न चाऽत्रापि तथाभावः, तथाभूतात्मैककेवलिद्रव्याभ्युपगमात् रूप-रसात्मैकद्रव्यवत्। अक्रमरूपत्वे च द्रव्यस्य 10 तदात्मकत्वेन तयोरप्यक्रम एव । न च तयोस्तद्रूपतया तथाभावो न स्वरूपतः, तथात्वेऽनेकान्तरूपताविरोधाद् के भीरुजनों को यह भी सोचना जरुरी है।।७।। व्याख्यार्थ :- केवलज्ञान एवं केवलदर्शन सादि-अनंत कहे गये हैं। यदि उन्हें क्रमिक माने जाय तो अपने अपने दूसरे समय में प्रत्येक का अन्त मानना होगा, तब उन्हें अनन्त कैसे मान सकेंगे ? अतः क्रमोपयोगवादी यदि सूत्र की आशातना से डरते हैं तो 'केवलणाणे णं भंते...' ( ) इत्यादि आगमसूत्र 15 में केवलज्ञान-केवलदर्शन को सादि-अनन्त कहा है उस के ऊपर विचारणा करनी पडेगी। हालाँकि सूत्र तो अचेतन पुद्गलमय होने से उस की आशातना साक्षात् नहीं किन्तु उस के निरूपक सर्वज्ञ भगवंत के अधिक्षेप के द्वारा ही समझना होगा, क्योंकि अचेतन का कोई अधिक्षेपण संभव नहीं होता। [ क्रमवाद में द्रव्यापेक्षया अपर्यवसितत्व अघटमान ] यहाँ द्रव्य की अपेक्षा ग्रहण कर केवलज्ञान की अनन्तता की संगति करना उचित नहीं है, क्यों 20 कि सूत्र में द्रव्य संबंधि प्रश्नोत्तर पठित नहीं है, सिर्फ केवलज्ञान संबंधि प्रश्न एवं उत्तर पठित है। यदि कहा जाय - आप के मत से भी केवली के ज्ञानदर्शन की अनन्तता संगत नहीं हो सकती, क्योंकि ज्ञान-दर्शन आत्मा के पर्याय हैं, पर्याय तो उत्पत्ति-विनाशशील होते हैं। यहाँ आप द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तता कहेंगे तो हमारे पक्ष में भी इसी तरह समाधान हो जायेगा। सूत्र में द्रव्य को ले कर प्रश्न-उत्तर पठित नहीं होने से यदि हम द्रव्यापेक्षया अनन्तता नहीं कह सकते तो यह बात 25 आप को भी लागु पडेगी - फिर आप भी द्रव्य की अपेक्षा अनन्तता कैसे संगत कर पायेंगे ? तो यह ठीक नहीं है - हम तो केवलज्ञान-केवलदर्शन की उत्पत्ति समकालीन ही मानते हैं (अतः प्रवाह से अन्तराल न होने के कारण दोनों को अपर्यवसित मान सकते हैं)। जैसे पुद्गल में रूप और रस का सहोत्पाद होता है। पुद्गल में जैसे ऋजुता-वक्रता पर्याय क्रमशः ही उत्पन्न होते हैं ऐसा यहाँ नहीं है। यदि कहें कि 'तथापि पर्यायस्वरूप होने से उन दोनों में सान्तता-प्रसक्ति तदवस्थ 30 है' - नहीं, वे दोनों सिर्फ पर्यायस्वरूप ही नहीं हैं, केवलिद्रव्य का तादात्म्य होने से कथंचित् आत्मस्वरूप A. प्रज्ञापनाष्टादशे पदे सूत्र २४१ मध्ये भणितम्- 'केवलणाणी णं पुच्छा, गोयमा ! सातिए अपज्जवसिते' इति ३८९ तमे पृष्ठे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534