Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 476
________________ ४५७ खण्ड-४, गाथा-१०/११, केवलद्वयभेदाभेदविमर्श [ ज्ञान-दर्शनोपयोगविषये पूज्यानां मतत्रयम् ] अत्र च जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यानामयुगपद्भाविउपयोगद्वयमभिमतम् । मल्लवादिनस्तु युगपद्भावि तद्वयमिति। सिद्धान्तवाक्यान्यपि 'सागारमणागारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं' (प्रज्ञापना. द्वितीयपदे सू० ५४ गा.१६०) तथा 'केवलणाणुवउत्ता जाणंति' (गाथा-१६१). इत्यादीनि युगपदुपयोगवादिना स्वमतसंवादकत्वेन व्याख्यातानि। क्रमोपयोगवादिना तु 'सव्वाओ लद्धीओ..' (वि०आ०भा०३०८१)* 5 इत्यादीनि स्वमतसंवादकत्वेन। प्रकरणकारोऽपि स्वमतसंवादकान्येतान्यन्यानि च व्याख्यातवान् ।।१०।। साकारानाकारोपयोगयो.कान्ततो भेद इति दर्शयन्नाह सूरि:(मूलम्) परिशुद्धं सायारं अवियत्तं दसणं अणायारं। ण य खीणावरणिज्जे जुज्जइ सुवियत्तमवियत्तं ।।११।। दर्शन सिर्फ सामान्यग्राही इस तरह पृथक पृथक् दो उपयोग) माननेवालों के मत में न तो सर्वज्ञता 10 न्यायसंगत है न तो सर्वदर्शिता ।।९।। [ श्रीजिनभद्रगणि-मल्लवादि-सिद्धसेनदिवाकरसूरि के मतभेद ] व्याख्याकार यहाँ भिन्न भिन्न तीन मतों के प्ररूपक एवं उन के मतों का आधार प्रकट करते हुए कहते हैं - श्री विशेषावश्यकभाष्यकर्ता श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणपूज्य को क्रमशः उपयोगद्वय मान्य है। मल्लवादीसूरि (द्वादशारनयचक्रग्रन्थकर्ता) को युगपद् उपयोगद्वय (भिन्न) मान्य हैं । युगपद्उपयोगद्वयवादीयोंने 15 विविध सिद्धान्तवाक्यों का व्याख्यान भी अपने मत की पुष्टि करे इस ढंग से किया है – उदा० प्रज्ञापना उपांगसूत्र के ‘सागारमणागारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं' (द्वतीयपद सूत्र ५४ गाथा १६०) (सिद्धों का लक्षण है साकार-अनाकार उपयोग) तथा 'केवलणाणुवउत्ता जाणंति'... (गाथा-१६१) केवलज्ञान में उपयुक्त रह कर सर्वभाव-गुणभावों को जानते हुए एवं अनन्त केवलदृष्टियों से सर्वत्र देखते हुए - इत्यादि सिद्धान्तवाक्यों का व्याख्यान। (याद रहें-) पहले दिवाकरसूरिजी हुए। उन के बाद मल्लवादी, बाद में जिनभद्रगणी। 20 ___क्रमोपयोगवादीने 'सव्वाओ लद्धीओ...' (वि.आ.भा.३०८९) (यतः सर्व लब्धियाँ साकार उपयोग में प्राप्त होनेवाली हैं अत एव सिद्धत्वलब्धि भी साकार उपयोग में उपयुक्त को प्राप्त होती है ।) इत्यादि सिद्धान्तवाक्यों का व्याख्यान अपने मत की पुष्टि हो इस प्रकार किया है। सन्मतिप्रकरणकर्ता श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरिने भी इन उपरोक्त एवं अन्य सिद्धान्तवाक्यों का व्याख्यान अपने मत की पुष्टि हो इस प्रकार किया है।।१०।। 25 [ आवरणक्षय के बाद उपयोगभिन्नता नहीं ] सूरिदिवाकर अब यह दिखाना चाहते हैं कि केवली के साकार और अनाकार उपयोगों में कोई एकान्तभेद नहीं है - गाथार्थ :- साकार (उपयोग) परिशुद्ध = व्यक्त होता है, अनाकार दर्शन अव्यक्त होता है। आवरण .. असरीरा जीवघणा उवउत्ता दंसणे य णाणे य। - इति पूर्वार्धम् १६० गाथायाः। .. ....जाणंता सव्वभावगुणभावे । पासंता दिट्टीहिऽणंताहिं। संपूर्णा । इमे द्वे अपि गाथे औपपातिकसत्रे आवश्यकनिर्यक्तिमध्ये नमस्कारनिर्युक्तौ वि.आ.भा. टीकायां चोपलभ्येते । *. ....जं सागारोवओगलाभाओ। तेणेह सिद्धलद्धी उप्पज्जइ तदुवउत्तस्स ।। संपूर्णा ।। (भूतपूर्वप्रकाशने) For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org

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