Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 481
________________ ४६२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ ज्ञातदृष्टभाषी ज्ञाता दृष्टा संज्ञेयवर्ती चावश्यमेव युज्यते तच्छक्तिसमन्वयात् तथैतदपि एकत्ववादिना यदपर्यवसितादि केवलिनि प्रेर्यते तद् युज्यत एव। अत्रैकत्ववादिना प्रतिसमाधानं भण्यते यथैवार्हन्न पञ्चज्ञानी भवति तथैतदपि क्रमवादिना यदुच्यते भेदतो ज्ञानवानिति च तदपि न भवतीति सूत्रकृतोऽभिप्रायः। [ छद्मस्थ-केवलिनोः वैजात्यम् इति दिगम्बरः ] अत्र च छद्मस्थे किलोपयोगक्रमस्य दृष्टत्वात् केवलिनि च छद्माभावात् न क्रमवान् ज्ञानदर्शनोपयोग इत्ययमत्रार्थो विवक्षित इति केचित् प्रतिपन्नाः। न हि यो यज्जातीये दृष्टः सोऽतज्जातीयेऽपि भवति अतिप्रसङ्गात्, अन्यथा छद्मस्था अपि केवलिवत् क्रमोपयोगित्वात् सर्वज्ञाः स्युः, सोऽपि वा न भवेत्, है (अवधि-मनःपर्यव तो सपर्यवसित होते हैं किन्तु उन का मति-श्रुतज्ञान तो शक्तितः अपर्यवसित होता 10 है।) एवं शक्तितः तत् तत् ज्ञान की सदा जायमान उपलब्धिवाला, प्रगट बोधवाला, ज्ञात-दृष्ट का प्ररूपक, ज्ञाता और दृष्टा, तथा शक्तितः समस्तज्ञेयद्रव्यग्राही अवश्य होता है यह घट सकता है - इसी तरह व्यक्तरूप से नहीं किन्तु शक्तितः यह भी अपर्यवसितत्वादि सब कुछ केवली में क्रमवाद पक्ष में भी घटता है जिन के लिये एकत्ववादीने प्रश्न उठाये हैं। [पंचज्ञानाभाव की तरह उपयोगद्वयाभाव - अभेदवादी ] 15 एकत्ववादी इस के प्रत्युत्तर में उत्तरार्ध गाथापाद से कहता है - अरिहंत केवली जैसे शक्ति के माध्यम से भी पंचज्ञानी नहीं होते (चतुर्ज्ञानी भी नहीं,) इसी तरह क्रमवाद भेदपक्षाभिमत ज्ञानी एवं दर्शनवान् भी (उपयोगद्वययुक्त) नहीं होते। तात्पर्य यह है कि यदि केवली में क्रमवाद अथवा भेदवाद में शक्तितः सर्वदा दो उपयोग मानेंगे तो शक्तितः पाँच ज्ञान भी क्यों नहीं मान सकते ? जैसे शक्त्या पाँच ज्ञान नहीं होते तो दो उपयोग भी नहीं हो सकते। [ छद्मस्थ में जो है वह केवली में भी हो - ऐसा नियम नहीं - दिगम्बर ] छद्मस्थ की तरह केवली को कवलाहारी नहीं माननेवाले दिगम्बरवादी यहाँ अपने पक्ष की पुष्टि के लिये भूमिका निर्माण करते हुए कहते हैं - __ छद्मस्थ में भले ही क्रमोपयोग सिद्ध हो, किन्तु केवली में ज्ञान-दर्शनोपयोग क्रमिक नहीं हो सकता क्योंकि छद्मस्थ एवं केवली में वैजात्य है, छद्मस्थ में जो सावरणत्व है वह केवली में नहीं 25 है। अभेदवादी के मूलग्रन्थ का यही तात्पर्य होना चाहिये। किसी एकजातीय में जो धर्म सिद्ध है वह अन्यजातीय में भी होना अनिवार्य नहीं है, अन्यथा (बालजातीय मनुष्य में धूलीक्रीडा होती है तो उसी युवा (अबाल) जातीय नर में भी धूलीक्रीडा मानने की आपत्ति आयेगी यह) अतिप्रसंग होगा। यदि अन्य जातीय में भी तद्धर्म होने की अनिवार्यता मानेंगे तो सर्वज्ञ मनुष्य में जैसे क्रमोपयोग उपरांत सर्वज्ञता मानी जाती है वैसे छद्मस्थ पुरुष में भी क्रमोपयोग उपरांत सर्वज्ञता मानने की आपत्ति 30 होगी। अथवा छद्मस्थ जैसे क्रमोपयोग के साथ असर्वज्ञ होता है वैसे केवली भी क्रमोपयोग के साथ असर्वज्ञ प्रसक्त होगा। अथवा केवली में क्रमोपयोग के साथ निरावरणता होती है तो छद्मस्थ में भी क्रमोपयोग के साथ निरावरणता प्रसक्त होगी। अथवा छद्मस्थ में क्रमोपयोग के साथ सावरणता होने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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