Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 468
________________ खण्ड-४, गाथा-४, केवलद्वयभेदाभेदविमर्श ४४९ च 'न किञ्चिज्जानाति तीर्थकृत्' इत्यधिक्षेपः, 'अन्यथोक्ते तीर्थकृतैवमुक्तम्' इत्यालदानम् । तथाहि- यदि विषय: सामान्यविशेषात्मकः तदा विषयि केवलं Aविशेषात्मकं वा भवेत् Bसामान्यात्मकं वा ? यदि Aविशेषात्मकमिति पक्षस्तदा निःसामान्यविशेषग्राहित्वात् तेषां च तद्विकलानामभावात् निर्विषयतया तदवभासिनो ज्ञानस्याभाव इत्यकिञ्चिज्ज्ञः सर्वज्ञस्ततो भवेत्। Bअथ सामान्यात्मकम् एवमपि विशेषविकलसामान्यरूपविषयाभावतो निर्विषयस्य दर्शनस्याप्यभावान्न किञ्चित् केवली पश्येत् । अथाऽयुगपद् ज्ञानदर्शने तस्याभ्युपगम्येते 5 तथापि – यदा जानाति न तदा पश्यति, यदा च पश्यति न तदा जानातीत्येकरूपाभावे अन्यतरस्याप्यभावात् पूर्ववदकिञ्चिज्ज्ञोऽकिञ्चिद्दर्शी च स्यात् । उभयरूपे वा वस्तुन्यन्यतरस्यैव ग्राहकत्वात् केवलोपयोगो विपर्यस्तो वा भवेत् । तथाहि – यद् उभयरूपे वस्तुनि सामान्यस्यैव ग्राहकं तद्विपर्यस्तम् यथा सांख्यज्ञानम् । तथा च सामान्यग्राहि केवलदर्शनमिति। तथा यद् विशेषावभास्येव तथाभूते वस्तुनि तदपि विपर्यस्तम् को भी 'तीर्थंकरने ऐसा कहा है' ऐसा दिखाना यह तीर्थंकर के सिर पर आलदान है। कैसे यह देखिये 10 - जब विषयवस्तु मिलित सामान्यविशेषोभयात्मक है तब विषयग्राही केवलउपयोग Aकेवल विशेषात्मक होगा या Bकेवल सामान्यात्मक ? (यहाँ प्रश्नों में विशेषग्राही उपयोग के लिये विशेषात्मक एवं सामान्यग्राहि उपयोग के लिये सामान्यात्मक - शब्दप्रयोग समझ लेना ।) (१) यदि पहला 'विशेषात्मक' होने का पक्ष माना जाय तो सर्वज्ञ में अकिंचिज्ज्ञत्व का आरोप इस तरह प्रसक्त होगा - सामान्यात्मक विशेष का ग्राहक होने से वह निर्विषयक ही सिद्ध हुआ क्योंकि सामान्यविकल विशेषों की सत्ता ही असिद्ध 15 है, निर्विषय ज्ञान वास्तव में ज्ञान ही नहीं है अतः ज्ञानाभाव सिद्ध होने से केवली अकिञ्चिज्ज्ञ प्रसक्त हुआ। (२) यदि ‘सामान्यात्मक' दूसरा पक्ष होने का माना जाय तो दर्शन निर्विषयक सिद्ध होगा क्योंकि विशेषानात्मक सामान्यरूप विषय की सत्ता असिद्ध है, अतः निर्विषयक किसी दर्शन की सत्ता सिद्ध न होने से केवलि अकिंचिद्दी प्रसक्त हुआ। [ क्रमशः ग्रहण के प्रतिपादन में भी पुनः दोष ] ___ यदि अकिंचिज्ज्ञता दोष के वारणार्थ कहा जाय कि - "पहले - तीसरे आदि समय में सर्वविशेषों का और क्रमशः दूसरे-चौथे आदि समय में सर्व सामान्यों का ग्रहण, इस प्रकार सामान्यात्मक ही विशेष का एवं विशेषात्मक ही सामान्य का क्रमशः ग्रहण मानने पर 'अकिंचिज्ज्ञता' का आरोप नहीं रहेगा" - तो पुनः अन्य प्रकार से वह दोष प्रसक्त होगा - केवली जब जानता है तब देखता नहीं है और जब देखता है तब जानता नहीं है, इस प्रकार प्रत्येक समय में एक के न होने पर तत्संलग्न 25 दूसरे का भी अभाव प्रसक्त होने के कारण पहले की तरह केवली अकिंचिज्ज्ञ एवं अकिंचिद्दर्शी प्रसक्त हुआ। अथवा केवल उपयोग विपर्यस्त यानी भ्रमात्मक प्रसक्त होगा क्योंकि उभयस्वरूप वस्तु का उभयरूप से बोध न हो कर किसी एकरूप से बोध करता है। कैसे यह देखिये - जो उभयात्मक वस्तु के होने पर सिर्फ सामान्य का ही ग्राहक है वह मिथ्या होता है जैसे सांख्यमत के प्रकृति-विकृति उभयात्मक 30 वस्तु में सिर्फ प्रकृति को ही ग्रहण करनेवाला ज्ञान| केवलदर्शन भी इसी प्रकार 20 . तथाभूते = व्यात्मके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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