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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ केवलज्ञानं पुनः केवलाख्यो बोधः दर्शनमिति वा ज्ञानमिति वा यत् केवलं तत् समानं = समानकालं द्वयमपि युगपदेवेति भावः । तथाहि - एककालौ केवलिगतज्ञानदर्शनोपयोगी तथाभूताऽप्रतिहताविर्भूततत्स्वभावत्वात् तथाभूतादित्यप्रकाश-तापाविव । यदैव केवली जानाति तदैव पश्यतीति सूरेरभिप्रायः ।।३।।
[ केवलज्ञान-दर्शनयोः क्रमवादे पूर्वपक्षारम्भः ] 5 अयं चागमविरोधीति केषांचिन्मतमुपदर्शनयन्नाह
(मूलम्) केई भणंति 'जइया जाणइ तइया ण पासइ जिणो' त्ति।
सुत्तमवलम्बमाणा तित्थयरासायणाऽभीरू ।।४।। केचिद् ब्रुवते ‘यदा जानाति तदा न पश्यति जिनः' इति । सूत्रम्- 'केवलि णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढविं आयारेहिं पमाणेहिं हेऊहिं संठाणेहिं परिवारहिं जं समयं जाणइ नो तं समयं पासइ ? हंता 10 गोयमा ! केवली गं.... ( )' इत्यादिकम् अवलम्बमानाः।
प्रयोग देखिये - केवली के ज्ञान-दर्शनोपयोग एककालीन होते हैं, क्योंकि यथार्थरूप से बेरोकटोक अपने स्वभाव से प्रकट होनेवाले हैं। उदा० सूर्य के ताप और प्रकाश दोनों यथार्थरूप से एक ही काल में प्रकट होते हैं। इस तरह मूलग्रन्थकार आचार्य का अभिप्राय यही (टीकाकार की दृष्टि से) फलित होता है कि केवली भगवंत जिस समय जानते हैं उसी समय देखते भी हैं।।३।।
[ पूर्वपक्षरूपेण ज्ञान-दर्शन भिन्नकालता का प्रदर्शन ] अवतरणिका :- युगपद् या अभेद मत आगमविरोधी है, ऐसा कुछ विद्वानों का मत है, उस का उपदर्शन कराते हुए मूलग्रन्थकार कहते हैं -
गाथार्थ :- तीर्थंकर की आशातना से न डरनेवाले कुछ लोग सूत्र को पकड कर कहते हैं कि जिन जब जानते हैं तब देखते नहीं ।।४।। 20 टीकार्थ :- केवलि णं.... सूत्र को पकडनेवाले कुछ विद्वान् कहते हैं जब जिन भगवान् जानते
हैं तब देखते नहीं हैं - इस का प्रमाण यह सूत्र है 'केवलि णं....' इत्यादि जिस का शब्दार्थ यह है - हे भगवंत ! आकार, प्रमाण, हेतु, संस्थान, परिवारों (विविध स्वरूप) से इस रत्नप्रभा पृथ्वी को केवली जिस समय जानते हैं उस समय देखते नहीं हैं ? हाँ गौतम ! केवली.. इत्यादि । A. प्रज्ञापनासूत्रत्रिंशत्पदे ३१४ तम सूत्रे भणितमिदम्- केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढविं आगारेहिं हेतूहिं उवमाहिं दिट्ठतेहिं वण्णेहिं संठाणेहिं पमाणेहिं पडोयारेहिं जं समयं जाणति तं समयं पासइ ? जं समयं पासइ तं समयं जाणइ ?
गोयमा ! नो तिणढे समढे।
से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चति – 'केवली णं इमं रयणप्पभं पुढविं आगारेहिं जं समयं जाणति नो तं समयं पासति, जं समयं पासति नो तं समयं जाणति ?
गोयमा ! सागारे से णाणे भवति, अणागारे से दंसणे भवति से तेणटेणं जाव णो तं समयं जाणति... इति ५३१ पृष्ठे ।
एतत्सदृशान्यन्यानि सूत्राणि भगवतीसूत्रीय चतुर्दशाऽष्टादशशतकान्तर्गताभ्यां दशमाष्टमोद्देशकाभ्यां यथाक्रममवगन्तव्यानि (इति भूतपूर्वसम्पादकौ)
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