Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 463
________________ ४४४ सन्मतितर्कप्रकरण- काण्ड - २ (मूलम् ) दव्वट्ठिओ वि होऊण दंसणे पज्जवट्ठिओ होइ । उवसमियाईभावं पडुच्च णाणे उ विवरीयं । ॥ २ ॥ अस्यास्तात्पर्यार्थः- दर्शनेऽपि विशेषांशो न निवृत्तः नापि ज्ञाने सामान्यांश इति । द्रव्यास्तिकोऽपि इति आत्मा द्रव्यार्थरूपः स भूत्वा दर्शने = सामान्यात्मके स ह्यात्मा चेतनालोकमात्र5 स्वभावो भूत्वा तदैव पर्यायास्तिको विशेषाकारोऽपि भवति । यदा हि विशेषरूपतया आत्मा सम्पद्यते तदा सामान्यस्वभावमपरित्यजन्नेव । विशेषाकारश्च विशेषावगमस्वभावं ज्ञानं दर्शने सामान्यपर्यालोचने प्रवृत्तोऽप्युपात्तज्ञानाकारः, न हि विशिष्टेन रूपेण विना सामान्यं सम्भवति । एतदेवाह - औपशमिकादिभावं प्रतीत्य इति औपशमिक-क्षायिक- क्षायोपशमिकादीन् भावान् अपेक्ष्य विशेषरूपत्वेन ज्ञानस्वभावाद् वैपरीत्यं सामान्यरूपतां प्रतिपद्यते । विशेषरूपः सन् स एव सामान्यरूपोऽपि भवति । न ह्यस्ति सामान्यं विशेषविकलं 10 वस्तुत्वात् शिवकादिविकलमृत्त्ववत् । विशेषा वा सामान्यविकला न सन्ति असामान्यत्वात् मृत्त्वरहितशिवकादिवत् । ।२ । । गाथार्थ :- द्रव्यास्तिक होता हुआ दर्शन में पर्यायार्थिक होता है । औपशमिकादि भावों की अपेक्षा ज्ञान में वैपरीत्य है । । २ ।। उस का तात्पर्यार्थ यह है कि दर्शन में भी विशेषांशस्पर्शित्व का सर्वथा अभाव नहीं होता । 15 एवं ज्ञान भी सर्वथा सामान्यानवगाहि नहीं होता। दोनों ही गौणरूप से इतरांश - अवगाहि होते हैं । [ आत्मा दर्शनमय आत्मा ज्ञानमय ] दूसरी कारिका का शब्दार्थ एवं भावार्थ इस प्रकार है सामान्यात्मक दर्शनमय जो द्रव्यास्तिक यानी द्रव्यार्थमय जो आत्मा है वह जब सामान्याकारमय यानी चैतन्यमय शुद्ध प्रकाशस्वरूप होता है उसी काल उसी समय में वह पर्यायास्तिक यानी विशेषाकारमय भी होता है । - 20 जब भी आत्मा ( भिन्न भिन्न ) विशेषाकाररूपेण परिणत होता है तब सामान्याकारस्वभाव का त्याग नहीं करता है । विशेषाकारपरिणत आत्मा यानी विशेषविषयकबोधस्वभाववाला ज्ञानोपयोग । सामान्य की विचारणा में प्रवृत्त दर्शन के काल में भी आत्मा ज्ञानाकार का त्याग नहीं करता । विशिष्ट आकार से विनिर्मुक्त सामान्य कभी सम्भव नहीं है । यही तथ्य उत्तरार्ध में स्फुट किया है। 4 औपशमिकादि यानी औपशमिक क्षायिक- क्षायोपशमिकादि 25 भावों से सापेक्ष ऐसा आत्मा विशेषरूप से परिणत होता है क्योंकि ऐसा ही ज्ञान स्वभाव है । यही विशिष्टरूप से परिणत आत्मा समानकाल में तद्विपरीतरूप से यानी सामान्यात्मकता में भी परिणत होता है । सारांश, विशेषमय परिणत आत्मा सामान्यरूप से भी परिणत होता है। सामान्य कभी विशेषशून्य नहीं होता क्योंकि वह (सा०वि० उभयात्मक) वस्तुरूप है । उदा० सामान्य मिट्टी शिवक-स्थास आदि विशेषों से शून्य नहीं होती । एवं विशेष भी कभी सामान्य से विकल नहीं 30 होते, क्योंकि वे स्वयं सामान्यरूपधारी नहीं है जैसे मृत्त्व विकल शिवकस्थासादि अवस्थाएं । 4. कर्मों के उपशम या क्षय आ अंशतः क्षय-उपशममिश्रता से आत्मा में जो परिणाम या अध्यवसाय प्रकट होते हैं वे औपशमिकादि भाव कहे जाते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534