Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 436
________________ खण्ड-४, गाथा-१ ४१७ परस्परतो भेदमनुभवन्ति भावा इत्युक्तं प्राक् । तेन स्वत एव घटाभावरूपः पटः न पुनर्वस्तुभूताभावांशवशात्, येन भवतामिव ततो व्यावर्त्तमानस्य तस्य पररूपताप्रसक्तिर्भवेत् । __ स्वभावादपि परगतादस्य निवृत्तिः, न पररूपतेति चेत् ? न, उभयतो व्यावृत्तस्यापि यथा परस्य पररूपताऽभ्युपगता तथाऽस्यापि स्यात् उभयरूपता वा स्यात्, ततो निवर्तमानो भावः स्वेनैव रूपेणान्यतो निवर्त्तते नाभावांशवशादिति कुतोऽस्मत्पक्षसमानताप्रसक्तिः ? यदि पुनरस्मदभ्युपगत एव न्यायोऽभ्युपगम्यतो 5 तदाऽसदंशप्रकल्पनमनर्थकमासज्येत । न च सदंशासदंशयोरात्यन्तिकभेदाभावाद् नायं दोषः, 'धर्मयोर्भेद इष्टो हि' (४००-१०) इत्यादिवचनतस्तयोर्भेदाभ्युपगमात् आत्यन्तिकभेदस्य च परस्य क्वचिदनिष्टेः। [भावों का भेद अभावांशाधीन नहीं, स्वतः है - बौद्ध ] शंका :- सभी भाव इतरेतराभावात्मक होते हैं। कट भी घटाभावात्मक है और पट भी कट से भी व्यावृत्त ही है। लेकिन उस का मतलब यह नहीं है कि कट से व्यावृत्त घट और पट एक हो। 10 इसी तरह प्रस्तुत में परभावाभाव से व्यावृत्त वस्तु परभावात्मक नहीं बन जाती, वह तो उस से भी व्यावृत्त ही रहती है। उत्तर :- ऐसा नहीं कहना चाहिये। कारण :- घट से पट भिन्न है तो वहाँ कटलक्षण उन में न होने से भिन्न है ऐसा नहीं है (स्वतः भिन्न हैं), अत एव कट से व्यावृत्त होने वाले पट में आप की मान्यता की तरह घटरूपता की प्राप्ति नहीं हो सकती। पहले ही हमने कह दिया है कि सभी 15 भाव अपने अपने स्वभाववश ही अन्योन्य भिन्नता का अनुभव करते हैं। अतः पट स्वतः ही घटाभावरूप है, न कि स्वनिष्ठ वस्तुभूत अभावांश की महिमा से। अत एव आप के मत की तरह कट से व्यावृत्ति रखनेवाले पट में घटरूपता की प्राप्ति का सवाल ही नहीं है। शंका :- हमारे मत में भी, पररूपता की प्रसक्ति नहीं है क्योंकि वस्तु घटादि जैसे कटादि से व्यावृत्त है वैसे पट (पटादि) वस्तु निष्ठ स्वभाव से भी व्यावृत्त है यानी उस का भी भेद है। 20 उत्तर :- यह ठीक नहीं है। पर पदार्थ जैसे कट और पट से व्यावृत्त है फिर भी उस में पररूपता रहती है तो वैसे व्यावृत्त घट में भी पररूपता क्यों नहीं रह सकती ? अथवा उभयरूपता क्यों नहीं हो सकती ? आप के अभावांशपक्ष में ये दोष हैं। हमारे पक्ष में तो अभाव तुच्छ है, वस्तु नहीं। हमारे मत से तो भिद्यमान भाव अपने स्वरूप से ही भेदानुभव करता है न कि अभावांश के बल से। तब हमारे पक्ष की आपके पक्ष में समानता की प्रसक्ति क्यों कर होगी ? यदि हमारे पक्ष में 25 जिस न्याय (युक्ति) का आशरा लिया गया है उसी का आप भी लेते हैं तब तो आप की वस्तु में असदंश की कल्पना व्यर्थ ठहरेगी। शंका :- वस्तु में जो सदंश है, असदंश उस से अत्यन्त भिन्न नहीं है, अतः सदंश की कल्पना की तरह असदंश की कल्पना भी सार्थक बनेगी। कोई दोष नहीं है। उत्तर :- नहीं, आपने ही पहले (४००-२९) कहा है - 'धर्मी का अभेद होने पर भी धर्मों 30 का भेद तो मान्य है।' इस उक्ति के अनुसार सदंश और असदंश का आप को तो भेद ही मानना पडेगा। आपने सिर्फ असदंश एवं सदंश में ही आत्यन्तिक भेद न होने का कहा, लेकिन ऐसे तो आपने कहीं पर भी आत्यन्तिक भेद माना ही नहीं, जैसे कि श्लो॰वा. (अभाव.श्लो०२४) में कहा है - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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