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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ स्वलक्षणस्य चान्यत्राननुगमाद् नान्वयसिद्धिः । अतद्रूपपरावृत्तस्य तस्य हेतुत्वेऽपि स्वलक्षणपक्षभावी दोषः तदवस्थ एव, अतद्रूपपरावृत्तेः स्वलक्षणादव्यतिरेकात्। व्यतिरेके अनुगतत्वे पारमार्थिकत्वे च सामान्यस्य भङ्ग्यन्तरेण हेतुत्वमभ्युपगतं भवेत् । कल्पनाविरचितस्य हेतुत्वे कुत: पक्षधर्मता ? कल्पनाया: परमार्थतो
वस्त्वसंस्पर्शादित्युक्तं प्राक् । न च परपक्षे पक्षधर्मत्वं संभवति पक्षलक्षणस्यैवाऽसंभवात्। 'जिज्ञासितविशेषो 5 धर्मी पक्षः' (न्यायबिंदु, २-८) इति तल्लक्षणं चेत् ? नैतत्, यतो न तावत् शब्दे वादी अनित्यत्वं
जिज्ञासितुमर्हति, स्वनिश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पादनाय तेन साधनप्रयोगात् । नापि प्रतिवादी, प्रतिपक्षसाधनाय वाद्युक्तसाधनप्रतिघाताय च तस्य प्रवृत्तेः। नापि प्राश्निकाः, तेषां विदितवेद्यतया तत्र जिज्ञासाऽसम्भवात् । स्वार्थानुमाने च हेतोर्लक्षणं न कथञ्चित्, तद्युक्तितः स्वयमेव तत्र जिज्ञासनात्।
_ 'प्रतिपिपादयिषितविशेषो धर्मी' ( ) इत्यपि लक्षणं प्रतिविहितम् । 'यदर्थममनुमानमुपन्यस्तं तेन तत्र 10 जिज्ञास्यविशेषो धर्मी पक्ष' इति चेत् ? न, हेतावपि समर्थनात् प्राग् जिज्ञासनीयविशेषत्वात् पक्षत्वप्राप्तः ।
'साध्यत्वेन बुभुत्सितविशेषो धर्मी पक्ष' इति चेत् ? न, बुभुत्सितग्रहणस्यानर्थकत्वात्। 'साध्यविशेषो धर्मी' इति चेत् ? तथापि न किञ्चिद् विशेषग्रहणेन धर्मिग्रहेन वा प्रयोजनम् इति न पक्षलक्षणं जा सकता, कदाचित् किया भी जाय किन्तु असत् किसी का धर्म बन नहीं सकता अतः वह पक्ष
धर्म भी नहीं हो सकता, जैसे असत् शशशृंगादि। यदि स्वलक्षण को हेतु करे तो, पक्ष भी स्वलक्षण 15 हेतु भी स्वलक्षण, (एक स्वलक्षण में दूसरा स्वलक्षण वृत्ति न होने से) अतः हेतु पक्ष का धर्म नहीं
बनेगा। अभेद होने पर धर्मि-धर्मभाव घट नहीं सकता। दूसरी बात, स्वलक्षण तो सर्वतो व्यावृत्त होने से अन्यत्र अनुगत है नहीं, फिर अन्वय – 'जहाँ जहाँ हेतु' यह कैसे बोल सकेंगे ? मतलब अन्वयसिद्धि नहीं होगी। अतद्व्यावृत्तिरूप से अनुगम कर के (स्वलक्षण को) हेतु बनाया जाय तो भी स्वलक्षण
हेतुपक्ष में जो दोष कहा है वही तदवस्थ रहेगा, क्योंकि अतद्व्यावृत्ति कोई स्वलक्षण से अतिरिक्त 20 वस्तु नहीं है। यदि अतव्यावृत्ति को अतिरिक्त, अनुगत एवं वास्तविक मान ले तो प्रकारान्तर से
अन्यवादी स्वीकृत सामान्यपदार्थ का ही हेतुरूप से स्वीकार प्रसक्त होगा। यदि वास्तव नहीं मानेंगे किन्तु कल्पना कल्पित सामान्य को हेतु मानेंगे तो वह पक्ष का धर्म ही नहीं हो पायेगा, क्योंकि कल्पना कभी परमार्थतः वस्तुस्पर्शी नहीं होती यह पहले कहा जा चुका है।
[पक्षधर्मता के लक्षण की अघटमानता ] 25 बौद्ध धर्म के मतानुसार, हेतु में पक्षधर्मता नहीं घट सकती इतना ही नहीं, पक्षधर्मता पदार्थ
भी युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि पक्ष का तदुक्त लक्षण ही संगत नहीं हो सकता। बौद्ध के धर्मकीर्तिआचार्य विरचित न्यायबिन्दु (२-८) ग्रन्थ में पक्ष की व्याख्या है - 'जिस (धर्मी) में (अज्ञात साध्यरूप) विशेष जिज्ञासाविषय है वह धर्मी पक्ष है।' - यह लक्षण भी युक्तिसंगत नहीं है। जो वादी शब्दरूप धर्मी
में अनित्यत्वसाधक हेतु का प्रयोग करता है - क्या उसे अनित्यत्व की जिज्ञासा मानना उचित है ? 30 नहीं। वह तो पहले ही निश्चय कर के बैठा है, स्वनिश्चय की तरह प्रतिवादी को निश्चय कराने
के लिये वह हेतु का प्रयोग करता है। क्या प्रतिवादी को अनित्यत्व की जिज्ञासा है ? नहीं, क्योंकि प्रतिवादी तो पहले से ही वादीविरुद्ध मत की सिद्धि के लिये वादीप्रयुक्त हेतु का प्रतिकार करने
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