Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 442
________________ ४२३ खण्ड-४, गाथा-१ तयोः सम्बन्धः अन्योन्यव्यवच्छेदरूपत्वात् उपकार्योपकारकभावाभावाच्च । न तदुत्पत्तिलक्षणः । न चापरसम्बन्धमन्तरेण तयोर्विशेषण-विशेष्यभावः सम्भवत्यतिप्रसङ्गात् । न चैतत्प्रतीतिसामर्थ्यादेवाभिप्रेतसम्बन्धप्रकल्पना, प्रतीतेरन्यथापि सिद्धेः। तन्नाक्षस्य संयुक्तविशेषणभावादेतत्प्रतिपत्तिजनकत्वं युक्तम्। किञ्च ‘इह घटस्याभावः' इति स्वतन्त्रो यद्यध्यक्षप्रत्ययः कथं दर्शनानन्तरं भवेत् ? न च मानसाध्यक्षवत् स्वातन्त्र्येऽप्यानन्तर्यं भविष्यति, तत्र स्वविषयानन्तरविषयसहकारित्वादेस्तदानन्तर्यनिमित्तस्य सदभावात - अत्र च तस्याऽसम्भवात्। 5 तदेवं घटविविक्तप्रदेशसामर्थ्योद्भूतेनाध्यक्षेण तत्स्वरूपग्रहणे ‘सघटात् प्रदेशादयमन्यः प्रदेशः' 'नायं घटवान्' 'इह घटो नास्ति' इत्यादयः प्रतिषेधविकल्पाः प्रवर्त्तमाना गृहीतग्राहितया स्मृतिरूपतां बिभ्राणा न ततः पृथक् प्रमाणतामासादयन्तीत्यभ्युपगन्तव्यम्; अन्यथा शुक्लभावदर्शनानन्तरं 'शुक्लोऽयं भावः न नीलः' इति प्रत्ययो दर्शनात् पृथक् प्रमाणं भवेत्। एवमन्येषामपि युक्ति-संभवानुपलब्ध्यादीनां प्रमाणान्तरत्वेन के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता। तादात्म्य सम्बन्ध का तो सम्भव ही नहीं है, क्योंकि भाव-अभाव 10 तो परस्पर अत्यन्तविरुद्धस्वरूप है, तथा उन में कोई उपकार्य-उपकारक भाव भी नहीं है। (भाव का अभाव के साथ) तदुत्पत्तिस्वरूप सम्बन्ध भी नहीं है क्योंकि दोनों में कारण-कार्यभाव नहीं है। अन्य किसी सम्बन्ध के विना उन दोनों में विशेषण-विशेष्यभाव भी घट नहीं सकता। विना सम्बन्ध विशेषणविशेष्यभाव मानेंगे तो हिमाचल-विन्ध्याचल में विशेष्य-विशेषणभाव प्रसक्त होगा। यदि कहें कि 'प्रदेश (भूतल) और अभाव में जो वैशिष्ट्य प्रतीति होती है उस के बल से ही उन में इष्ट (विशेष्य- 15 विशेषणभाव) सम्बन्ध की कल्पना करनी पडेगी।' तो यह भी अयुक्त है क्योंकि विना सम्बन्ध भी भ्रान्ति में वैशिष्ट्यप्रतीति होती है। अत एव इन्द्रिय का, अभाव के साथ संयुक्तविशेषणता सम्बन्ध द्वारा विशिष्टप्रतीति जनकत्व मानना भी अयुक्त ही है। [ यहाँ घट का अभाव है - इस प्रत्यक्ष में आनन्तर्य क्यों ? ] दूसरी बात :- 'यहाँ घट का अभाव है' ऐसी प्रतीति यदि स्वतन्त्र प्रत्यक्षरूप है तो क्यों दर्शन 20 के बाद होती है ? स्वतन्त्र होने पर तो वास्तव में दर्शन के रूप में उस का प्रत्यक्ष होना चाहिये। यदि कहें कि - 'स्वतन्त्र होने पर भी जैसे दर्शन के बाद मानसप्रत्यक्ष होता है वैसे अभाव का भी होगा', - तो यह सम्भव नहीं है; क्योंकि मानस प्रत्यक्ष में तो आनन्तर्य का निमित्त है स्वविषय उत्तरवर्ती विषय का सहकारित्व, अभाव प्रत्यक्ष में तो ऐसा सम्भव नहीं है। वास्तविकता यह है कि घटशून्य प्रदेश के सामर्थ्य से निपजनेवाले प्रत्यक्ष से अभावस्वरूप का जब ग्रहण होता है तब विविध 25 प्रकार से निषेध विकल्प जाग्रत होते हैं - ‘घटविशिष्ट प्रदेश से यह प्रदेश भिन्न ही है' अथवा 'यह (प्रदेश) घटयुक्त नहीं है' अथवा 'यहाँ घडा नहीं है' इत्यादि। ये सब विकल्प स्मृति से बाह्य नहीं है क्योंकि गृहीतग्राही हैं। अत एव पृथक् प्रमाण की गिनती में नहीं आ सकते – यही मानना होगा। यदि नहीं मानेंगे तो 'शुक्लो भावः' इस प्रकार दर्शन के बाद 'श्वेत है नील नहीं' ऐसी दर्शनोत्तर उत्पन्न प्रतीति को भी दर्शन से पृथक् नये प्रमाणरूप मानना पडेगा। 'अभाव स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है' उस के लिये जो युक्तिमार्ग यहाँ कहा गया, उसी युक्तिमार्ग पर चल कर, युक्ति (= तर्क), संभव, अनुपलब्धि आदि अन्यदर्शन कल्पित स्वतन्त्र प्रमाणों का भी निरसन 30 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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