________________
४२६
सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ निश्चिन्वानोऽपि कश्चित् शब्दं नोच्चारयेदिति तत्प्रवर्त्तनाय हेत्वन्तरं मृग्यं स्यात् । ततो घटादावप्यभावस्य साधना(थ) दृष्टान्तान्वेषणे तत्राप्यभावो यदि दृष्टान्तान्तरात् सिद्धस्तया सैवाऽनवस्था। अथ तत्र साध्याविनाभूतादनुपलम्भादेर्लिङ्गाद् दृष्टान्तान्तरमन्तरेणाप्यभावनिर्णय: शब्दादिव्यवहारस्य च प्रवृत्तिः, तर्खनुपलब्धावन्वयमन्तरेणापि गमकत्वमविनाभावमात्रात् कथं नाभ्युपगतं भवेत् ?
एतेन 'व्यतिरेकस्यान्वये विनाभावादगमकाङ्गता' इत्यपास्तम्। तेन 'नेदं निरात्मकं जीवच्छरीरम् अप्राणादिमत्त्वप्रसङ्गादिति व्यतिरेक्यपि हेतुर्गमकः सिद्धः। अथ सर्वथा परोक्षस्यात्मनोऽनुपलम्भादभावाऽसिद्धेरनात्मवत्तया घटादीनां सन्देहाद् व्यतिरेकाऽसिद्धितोऽस्य हेतोरनैकान्तिकत्वम्, नन्वेवं कथं सत्त्वादेः
क्षणिकत्वव्याप्तिसिद्धिः यतः क्षणक्षयी ध्वनिः सिध्येत् ? अथात्र विपर्यये बाधकप्रमाणबलात् सत्त्वस्य 10 वह प्रत्यक्षसिद्ध है तब तो उसी के बल पर अभावव्यवहार भी अनायास सिद्ध हो ही जाता है, क्योंकि अभाव के निर्णय के व्यतिरेक में अभावव्यवहार का व्यतिरेक होता है।
शंका :- हो सकता है, कोई मन्दबुद्धि स्थानविशेष में घटाभाव का (प्रत्यक्ष से) निश्चय कर ले फिर भी उस का शाब्दिकव्यवहार न कर पावे, तो ऐसे मन्दबुद्धि को अनुपलब्धि के निमित्त से
घटाभाव के व्यवहारार्थ प्रेरणा दी जा सकती है। 15 उत्तर :- ऐसा भी मत बोलिये। कारण, इस प्रकार तो, घटाभाव के व्यवहार के लिये जैसे अनुपलम्भ
प्रमाण को ढूँढते है तो वैसे ही कभी कोई मन्दबुद्धि पुरुष भाव का तो निश्चय कर ले किन्तु उस का शाब्दिक व्यवहार न कर पावे, तब उस मन्दबुद्धि को शाब्दिक व्यवहार में प्रेरित करने के लिये और कोई (अनुपलम्भ जैसा) हेतु ढूँढना पडेगा। पुनः बात तो वही खडी रही- घटादि के बारे में अभाव
को साधने के लिये शशशृंग जैसे दृष्टान्त को ढूँढेंगे तो उस के अभाव को साधने के लिये और भी 20 कोई दृष्टान्त ढूँढना पडेगा... इस प्रकार अनवस्था दोष पीछा नहीं छोडेगा। यदि कहें – 'शशशृंग दृष्टान्त
को छोड दो, हम तो साध्यअविनाभावि अनुपलम्भादि लिङ्ग से ही अन्यदृष्टान्त का सहकार लिये विना ही अभाव का निर्णय करेंगे और उससे ही शाब्दिक आदि व्यवहार का प्रवर्तन मानेंगे।' - अरे तब तो (जब अन्वयदृष्टान्त को छोड दिया तब) अन्वय के विना ही आपने तो अविनाभावमात्र के बल से अनुपलब्धि को साध्यगमक मान कर हमारे मत का स्वीकार करलिया न ?! धन्यवाद !
[अन्वय के विना भी व्यतिरेकी हेतु में ज्ञापकत्व की सिद्धि ] 'अन्वय के विना जो व्यतिरेक होता है वह साध्यसाधक नहीं होता' - ऐसा कथन भी पूर्वोक्त हमारे कथन से निरस्त हो जाता है। फलतः, व्यतिरेकी हेतु भी गमक है यह सिद्ध होता है - उदा. 'जीवन्त देह आत्मशून्य नहीं है, अन्यथा प्राणादिमत्त्व का लोपप्रसंग होगा।'
शंका :- आत्मा है तो भी परोक्ष है (योग्यानुपलब्धि नहीं है) अतः अनुपलब्धि से उस का 30 अभाव भले सिद्ध न हो सके, किन्तु घटादि सात्मक है या निरात्मक ऐसा संदेह तो हो सकता है,
प्राणादिव्यतिरेक भी आत्मशून्यता के (आत्मा के व्यतिरेक के) जरिये होने में भी संदेह होगा, अतः संदिग्धव्यतिरेकी होने से हेतु अनैकान्तिक हो जायेगा।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org