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खण्ड-४, गाथा-१
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प्रामाण्यम्। ____अथाऽध्यक्षमपि प्रमाणं नेष्यते, तर्हि लोकप्रतीतिबाधा भवन्तमनुबध्नाति अध्यक्षानुमानयोः प्रमाणतया लोके प्रतीतत्वात् । न च नाध्यक्षानुमानयोः प्रामाण्यमस्माभिर्निषिध्यते किन्तु त्रिलक्षणं चतुर्लक्षणं वा लिङ्गं न केनचित् प्रमाणेन भवतः प्रसिद्धमिति पर्यनुयोगे यद्यनुमानं साधकमभिधीयते ततस्तत्रापि स एव पर्यनुयोग इत्येवं सर्वत्र पर्यनुयोगपराण्येव बृहस्पतेः सूत्राणीति (प्र. खण्डे पृ.२८३-३) वक्तव्यम् । यत: पक्षधर्मात् 5 तदंशव्याप्तात् प्रमाणतोऽवगतात् साध्यप्रतिपत्तिरनुमानम्। पक्षधर्मतानिश्चयश्च क्वचित् प्रत्यक्षात् क्वचिच्चानुमानात् । यत्राप्यनुमानात् तन्निश्चयः तत्रापि नाऽनवस्थादिदूषणम् प्रत्यक्षादेव क्वचित् तन्निश्चयादनवस्थादिदोषव्यावृत्तेः। तदंशव्याप्तिनिश्चयश्च कार्यहेतोः कस्यचित् स्वभावहेतोश्च विशिष्टप्रत्यक्षादेव । को प्रमाणभूत स्वीकारते ही हैं। [चार्वाक के लिंगसिद्धिकारक प्रमाण विषयक प्रश्न का उत्तर ]
10 यदि चार्वाकवादी कहें कि – 'हमारा काम तो दूसरों के मत में आपत्ति उठाने का ही है, बाकी हम तो प्रत्यक्ष को भी प्रमाण नहीं स्वीकारते तो उसके उदा० से अनुमान की प्रमाणता का सपना भी कहाँ ?' - तो चार्वाक को लोकप्रतीति के बाध का बन्धन गले पडेगा यह बड़ी आपत्ति होगी। कारण, लोग तो प्रत्यक्ष और अनुमान को प्रमाण मान कर ही चलते हैं। अब चार्वाक कहता है – “हम प्रत्यक्ष या अनुमान के प्रामाण्य का निषेध नहीं करते हैं (स्वीकार भी नहीं।) किन्तु 15 आप जो तीन या चार (पक्षसत्त्वादि) लक्षणवाले लिङग का स्वीकार करते हैं वह किस प्रमाण से - यह हमारा प्रश्न है, इस के उत्तर में आप अनुमान को ही लिङ्ग साधक प्रमाण बतलायेंगे तो उस अनुमान का लिङ्ग भी किस प्रमाण से सिद्ध है - वही प्रश्न पुनरावर्तित होगा - इस प्रकार हमारे मत के जितने भी प्रसिद्ध सूत्र हैं उन का तात्पर्य यही समझना कि हम अन्य सभी दर्शनों की मान्यता पर प्रश्न ही प्रश्न खडे करनेवाले हैं, (प्र० खण्ड पृ. २८३-१८) न कि हम किसी मत 20 का स्थापन करते हैं।" - ऐसा कहना अयुक्त ही है। कारण, प्रमाणसिद्ध एवं अपने साध्यांश के साथ व्याप्त हो ऐसे पक्षधर्म (हेतु) के द्वारा जो साध्य का ज्ञान होता है उस को हम अनुमान प्रमाण कहते हैं, मतलब पक्षधर्मता एवं व्याप्ति के आधार पर लिङ्ग का निर्णय असम्भव नहीं है, फिर अनवस्था कैसे ? यदि पूछा जाय कि पक्षधर्मता का निश्चय कैसे हुआ तो उत्तर है कि कभी तो वह प्रत्यक्ष से ही हो जाता है, तो कभी अनुमान से भी होता है। जब अनुमान से निश्चय किया 25 जाय तब भी अनवस्था आदि दोष को अवकाश नहीं रहता, क्योंकि अनुमान से निश्चित की जानेवाली पक्षधर्मता का भी प्रत्यक्ष से पुनः निश्चय हो सकता है। अतः अनवस्था दोष को वहाँ रोक लग जाती है। साध्य के साथ व्याप्ति के निश्चय में भी अनवस्था दोष नहीं लगता, क्योंकि विशिष्ट प्रत्यक्ष से ही कभी कार्य हेतु की या कभी स्वभावहेतु की व्याप्ति का निश्चय सुलभ होता है। उदा. जब कभी स्वभावहेतु के रूप में अनित्यत्व का प्रयोग होता है तब प्रत्यक्ष से ही अनित्यत्वरूप स्वभावहेतु 39 का निश्चय प्राप्त रहता है। यदि पूछा जाय कि – अनित्यत्व यानी क्षणिकत्व जब निर्विकल्प प्रत्यक्ष गृहीत होने से सिद्ध है तो फिर सत्त्व हेतु से उस का अनुमान व्यर्थ क्यों नहीं होगा - तो उत्तर
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