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खण्ड-४, गाथा-१ न चेदं प्रत्यक्षम् परोक्षविषयत्वात् सविकल्पत्वाच्च । नाप्यनुमानम् हेत्वभावात्। न च स एव दृश्यमानो गवयविशेषः तद्गतं वा सादृश्यं हेतुः, उभयस्यापि धर्मिणा सह प्रतिबन्धाभावात्। न चाऽप्रतिबद्धो हेतुः, अतिप्रसंगात्। न च गोगतं सादृश्यं गौर्वा हेतुः, प्रतिज्ञार्थैकदेशत्वात्। न च सादृश्यमानं प्राक् प्रमेयेण सम्बद्धं प्रतिपन्नम्। न चान्वयप्रतिपत्तिमन्तरेण हेतोः साध्यप्रतिपादकत्वमुपलब्धम् । तदेवं गवार्थदर्शने गवयं पश्यतः सादृश्येन विशिष्टे गवि पक्षधर्मत्वग्रहणं सम्बन्धानुस्मरणं चान्तरेण प्रतिपत्तिरुपजायमाना नानु- 5 मानेऽन्तर्भवतीति प्रमाणान्तरमुपमानम्। तदुक्तम् (श्लो॰वा उप०श्लो०४३ तः ४६) -
न चैतस्यानुमानत्वं पक्षधर्माद्यसम्भवात्। प्राक् प्रमेयस्य सादृश्यं न धर्मत्वेन गृह्यते।। गवये गृह्यमाणं च न गवार्थानुमापकम्। प्रतिज्ञार्थेकदेशत्वाद् गोगतस्य न लिङ्गता ।। गवयश्चाप्यसम्बन्धान गोलिङ्गत्वमृच्छति। सादृश्यं न च पूर्वेण पूर्वं दृष्टं तदन्वयि ।। एकस्मिन्नपि दृष्टेऽर्थे द्वितीयं पश्यतो वने। सादृश्येन सहकस्मिंस्तदैवोत्पद्यते मतिः।।
10 (उदा०) कोई देश प्रत्यक्ष है - अग्नि स्मृतिगोचर है उन के वैशिष्ट्य के विषय में जैसे अनुमान अप्रमाण नहीं है (वैसे उपमान के लिये समझना)।। (श्लो० ३७ से ३९)
[प्रत्यक्ष/अनुमान में उपमान का अन्तर्भाव नहीं ] इस उपमानज्ञान का विषय परोक्ष होने से और यह ज्ञान सविकल्पात्मक होने से प्रत्यक्षरूप तो नहीं हो सकता। यह अनुमानरूप भी नहीं है क्योंकि इस में कोई हेतु ही नहीं है। पुरतः दृश्यमान 15 गवयविशेष को या गवयनिष्ठ सादृश्य को हेतु नहीं बना सकते, क्योंकि गोरूप धर्मी के साथ उन दोनों में से एक का भी कोई अविनाभावप्रतिबन्ध नहीं है, प्रतिबन्धहीन वस्तु हेतु नहीं बन सकता, अन्यथा सभी पदार्थ हेतु बन बैठेंगे। गोनिष्ठ सादृश्य या गौ स्वयं हेतु नहीं बन सकते, क्योंकि वे तो प्रतिज्ञान्तर्गतअर्थ का एकदेश है। (पहले कई बार यह बात आ गयी है - प्रतिज्ञातअर्थएकदेश हेतु नहीं हो सकता ।) गवयनिष्ठ नहीं, गोनिष्ठ नहीं सिर्फ सादृश्यमात्र को हेतु बनाया जाय तो वह 20 भी अनुचित है क्योंकि गवयदर्शन के पहले कभी भी गो रूप प्रमेय में वैसा सादृश्य गृहीत नहीं हुआ। दूसरी बात, (जहाँ धूम वहाँ अग्नि इस प्रकार के) अन्वय के बोध के विना हेतु कभी भी साध्य का साधक दृष्टिगोचर नहीं हुआ। इस चर्चा के अनुसार कह सकते हैं कि जिस आदमी ने पहले गौ को देखा है अभी गवय को देखता है, उस को न तो सादृश्यविशिष्ट गौधर्मी में पक्षधर्मता का ज्ञान है, न तो सम्बन्ध (अविनाभाव) का स्मरण है, फिर भी जो गौविशिष्टसादृश्य अथवा 25 सादृश्यविशिष्ट गौ का भान होता है वह अनुमान में अन्तर्भूत नहीं किया जा सकता, इस लिये उपमान प्रमाणान्तर है यह सिद्ध होता है। श्लो. वा० उप० श्लो० ४३ से ४६ में कहा गया है - _ “पक्षधर्मादि का सम्भव न होने से यह (उपमानज्ञान) अनुमानरूप नहीं है, पहले सादृश्य का प्रमेय के धर्मरूप में ग्रहण हुआ नहीं। गवय में गृहीत सादृश्य गोअर्थ का अनुमापक नहीं हो सकता। गोनिष्ठ (सादृश्य) प्रतिज्ञार्थैकदेशरूप होने से लिंगरूप नहीं है। सम्बन्ध के विना गवय भी गौ का 30 लिंग (ज्ञापक) नहीं बन सकता। पूर्व में (प्रमेय में) सादृश्य उस के अन्वयी के रूप में पूर्व दृष्ट नहीं है। एक अर्थ (गौ) पहले देखा, बाद में अरण्य में दूसरा (गवय) देखा, उसी वक्त सादृश्य से
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