Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 426
________________ खण्ड-४, गाथा-१ ४०७ विशदाभासस्य तत्राऽसंवेदनात्। संवेदने वा विकल्परूपताविरहादर्थरूपस्यैवानुकारात् तस्य च शब्दसंसर्गविकलत्वात् तत्सामर्थ्यप्रभवे च ज्ञाने असतस्तत्र शब्दस्याऽप्रतिभासनाद् न विशेष: शब्दवाच्यः। या च 'अयमसौ गवयशब्दवाच्यः' इति वाच्यताप्रतिपत्तिः सा दृश्य-विकल्प(ल्प्य)योरेकीकरणाद् भ्रान्तिः, अन्यथा पूर्वानुभूताकारपरामर्शेन दृश्यमानस्य ‘अयमसौ गवयशब्दवाच्यः' इति प्रतिपत्तिः कथं भवेत् अतिदेशवाक्यश्रवणसमये विशेष सम्बन्धाऽप्रतिपत्तेः ? प्रतिपत्त्यभ्युपगमे वा विशेषेऽपि सामान्यवत् स्मृतिरेवेति कुतः 5 प्रामाण्यमुपमानस्य ? ___ यदपि 'गौरिव गवयः' इति गो-गवययोरतिदेशवाक्यात् सादृश्यमात्रप्रतिपत्तिः, (३९४-६) 'संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तिस्तूपमानात्' (३९४-६) - तदप्यसमीक्षिताभिधानम्, यतो गवयदर्शनानन्तरम् ‘अयं स गवयशब्दवाच्यः' इति प्रतिपत्तिरुपजायते, इयं च नाध्यक्षप्रतिपत्तिफलम् अश्रुतातिदेशवाक्यस्य प्रभ्रष्टसंस्कारस्य वा तत्सद्भावेऽप्यस्यानुत्पत्तेर्विशेषशब्दवाच्यत्वस्याध्यक्षविषयत्वानभ्युपगमाच्च। अतिदेशवाक्य- 10 स्मरणसहायस्य गवयदर्शनस्य तत्प्रतिपत्तिजनकत्वे स्मर्यमाणमतिदेशवाक्यमेव तज्जनकमभ्युपगतं भवेद् न में दृष्टिगोचर व्यक्ति अनुगत (= एक) नहीं है। तथा, व्यवहारकालीन व्यक्ति उस में संकेत गृहीत न होने से वाच्य भी नहीं है। शाब्दबोध का यह नियम है - शब्दजन्य ज्ञान में जो भासता है वही उस शब्द का वाच्य होता है। विशेष (स्वलक्षण) तो शब्दजन्यबोध में भासता ही नहीं है, इस का सबूत यह है कि इन्द्रियप्रत्यक्ष में वह जैसा स्पष्ट भासित होता है वैसा स्पष्ट संवेदन शाब्द 15 ज्ञान में नहीं होता। यदि वह इन्द्रियप्रत्यक्ष में ही स्पष्ट भासित होता है तो सार यही निकलेगा कि विशेष शब्दवाच्य नहीं है। कारण, इन्द्रियप्रत्यक्ष से होनेवाला विशेष संवेदन विकल्परूप नहीं होगा किन्तु अर्थस्वरूप का ही अनुकारी होगा, तथा अर्थस्वरूप तो शब्दसंसर्ग से अस्पृष्ट होता है, अतः अर्थस्वरूपालम्बन से जन्य ज्ञान में असत् शब्द के सम्बन्ध का प्रतिभास होगा ही नहीं, फिर अर्थस्वरूप में शब्दवाच्यता होगी कैसे ? तब जो ‘यह वो गवयशब्दवाच्य है' ऐसी विशेष में वाच्यता की प्रतीति 20 कही जाती है वह तो दृश्य एवं विकल्प्य अर्थों के मानसिक एकीकरण से निपजने वाली होने से भ्रान्ति के अलावा कुछ भी नहीं है। यदि इस को भ्रान्ति नहीं माने तो पूर्वानुभूत आकार की स्पर्शना द्वारा जो वर्तमान में दिखता है उसी की 'यह वो गवयशब्दवाच्य है' ऐसा भान क्यों कर होता ? जब कि अतिदेशवाक्यश्रवण काल में विशेष के सम्बन्ध का तो कोई भान ही नहीं है। यदि विशेष के सम्बन्ध का भान मानेंगे तब तो पूर्वानुभूत का वर्तमान में भान मान लेने पर वह स्मृतिरूप 25 हो गया, फिर उपमान प्रमाण की बात कहाँ ? [ संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञान उपमानफल- नैयायिकतर्क ] यह जो पहले नैयायिकने कहा था (३९४-१७) कि 'गौ जैसा गवय' इस अतिदेशवाक्य से गो और गवय के सादृश्यमात्र की प्रतीति होती है, संज्ञा-संज्ञिसम्बन्ध का भान उपमान से होता है' (३९४२२) - तो यह भी बिना सोचे कह दिया है। कारण, गवयदर्शन के बाद 'यह वो गवयशब्दवाच्य' 30 ऐसी जो प्रतीति होती है (वह स्मृतिरूप है यह आगे स्पष्ट कहा जायेगा।) वह प्रत्यक्षज्ञान का फल नहीं है। कारण, जिस ने अतिदेशवाक्य नहीं सुना अथवा सुना तो है लेकिन अब उस के संस्कार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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