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खण्ड-४, गाथा-१
३७१ इति वक्तव्यम् अबाधितत्वस्या-ऽविसंवादित्वप्रतिपत्तिमन्तरेण ज्ञातुमशक्तेः, अज्ञातस्य च ज्ञापकहेत्वनङ्गत्वात्, तदङ्गत्वे वाऽनवगताऽ-विनाभावस्यापि धूमोऽग्निप्रतिपत्तिं विदध्यात्। तन्नाऽबाधितत्वं हेतो रूपान्तरम् इति पार्थिवत्वं काष्ठे लोहलेख्यत्वाऽविनाभूतमध्यक्षता प्रतिपन्नं वज्रे उपलभ्यमानं लोहलेख्यत्वं गमयेत् ।
अथ सर्वोपसंहारेणाध्यक्षं दृष्टान्तधर्मिण्यपि प्रवृत्तं साध्य-साधनयोरविनाभावमवगमयतीति, साध्यधमिण्यपि हेतोः साध्यधर्मेणाऽविनाभावनिश्चयाद् (अतः) नानुमानानुत्थानम्; भवेदेतत्- यद्यस्मदाद्यध्यक्षं 5 सकलदेशकालनियतसाध्यसाधनसाकल्यावभासि भवेत्, तथाभ्युपगमे वा धूमस्वरूपावभासिनाऽध्यक्षेण देशादिव्यवहितस्याग्नेरपि प्रतिपत्तेरनुमानप्रवृत्तेर्वैयर्थ्यप्रसक्तिः स्यात् । न च मानसं योगिप्रत्यक्ष वा सर्वोपसंहारेण साध्य-साधनयोर्व्याप्तिग्राहकं संभवति अध्यक्षस्य विशदाभासस्य साध्यसाधनावगतिस्वभावस्याऽसंवेदनात् । विशदावभासि च संनिहितार्थग्रहणस्वभावमस्मदाद्यध्यक्षमित्युक्तं प्राक् । अथानुमानेन व्याप्तिग्रहणेऽनवस्थाप्रसक्तेर्भवताऽप्यध्यक्षतस्तद्ग्रहणमभ्युपगन्तव्यम् तत्र चोक्त एव दोषः। तदसत् प्रतिबन्धग्राहिणा प्रमाणेन 10 उपलब्धि शक्य नहीं है। अनुपलब्ध अबाधितत्व कभी ज्ञापक हेतु का अंग (धर्म) नहीं माना जा सकता। यदि अज्ञात अबाधितत्व को हेतु का अंग मानेंगे तो अज्ञात अविनाभाव वाले हेतु धूम से अग्नि का भान भी क्यों न माना जाय ? सारांश, अबाधितत्व यह हेतु का अंग नहीं है। अतः यह दोष तदवस्थ रहेगा कि काष्ठ में पार्थिवत्व लोहलेख्यत्व का अविनाभूत होने का प्रत्यक्ष से सिद्ध है अतः वज्र में भी पार्थिवत्व लोहलेख्यत्व का बोध कर बैठेगा।
15 [ सकलोपसंहारेण अविनाभाव का ग्रहण अशक्य ] शंका :- दृष्टान्तधर्मि में जो प्रत्यक्ष प्रवर्त्तता है वह सर्व हेतु-साध्य स्थलों का अवगाहन (उपसंहार) कर के होता है। उसी अध्यक्ष के प्रभाव से साध्य-साधन की व्याप्ति गृहीत हो जाती है। फिर साध्यधर्मी में भी हेतु की साध्यधर्म के साथ पूर्वगृहीत व्याप्ति के निश्चय से अनुमान निर्बाध उत्थित होता है, उस के लिये साध्यधर्मी में उस काल में साध्य के प्रत्यक्ष की आवश्यकता नहीं।
20 उत्तर :- वैसा तब शक्य होता, यदि हम लोगों का प्रत्यक्ष सर्व देश सर्वकालवर्ती साध्य-साधन समग्र का अवभासि होता। अगर यह भी मान लें तब तो धमस्वरूप ग्राहि उपसंहारक प्रत्यक्ष से (दृष्टान्तधर्मी के प्रत्यक्ष से) देश-काल व्यवहित भी (साध्यधर्मीवृत्ति) अग्नि का भान हो जाने पर, यहाँ साध्य धर्मी में अनुमान प्रवृत्ति की निष्फलता पुनः प्रसक्त होगी। यह ज्ञातव्य है कि सर्वोपसंहार से साध्य-साधन की व्याप्ति का ग्रहण न तो मानस ज्ञान से शक्य है न तो योगिप्रत्यक्ष से। हम 25 लोगों का विशदाभासि प्रत्यक्ष भी संनिहित अर्थ ग्रहणस्वरूप से ही हमें संविदित होता है न कि साध्य-साधनावभासिस्वरूप से - यह पहले कहा जा चुका है।
शंका :- व्याप्ति का ग्रहण अनुमान द्वारा मानेंगे तो उस अनुमान की व्याप्ति का ग्रहण किस से ? यदि और एक नये अनुमान से... तब नये नये अनुमानों की कल्पना से अनवस्था प्रसक्त होगी, अत एव प्रत्यक्ष से ही व्याप्ति का ग्रहण करना पडेगा और आप तो उस में दोष दिखा रहे हैं, 30 जो गलत है।
उत्तर :- आप की बात गलत है। हम कहते हैं कि व्याप्ति ग्राहक प्रमाण से सर्वोपसंहार के
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