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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ भिन्नमनःपरिकल्पनमनर्थकमासज्येत । न च 'यस्य सम्बन्धि यन्मनः तत्समवेतसुखादिज्ञाने तदेव हेतुरिति नायं दोषः', प्रतिनियतात्मसम्बन्धित्वस्यैव तत्रासिद्धेः । न हि तत्कार्यत्वेन तत्सम्बन्धिता, तस्य नित्यत्वाभ्युपगमात् तत्र चानाधेयाऽप्रहेयातिशये तत्कार्यताऽयोगात् । नापि तत्संयोगात्, तस्यापि तत्रैकदेशेन सर्वात्मना वाऽयोगात्, योगेऽपि व्यापकत्वेन समानदेशिसर्वात्मभिर्युगपत्संयोगात् प्रतिनियतात्मसम्बन्धित्वानुपपत्तेः । न च यददृष्टप्रेरितं तत् प्रवर्तते तत्सम्बन्धीति वक्तव्यम्, अदृष्टस्याऽचेतनत्वेन प्रतिनियतविषय(?ये) तत्प्रेरकत्वाऽयोगात्, प्रेरकत्वे वा ईश्वरपरिकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तेः । न चैश्वरप्रेरित एवासौ तत्प्रेरक इति न तत्परिकल्पनावैयर्थ्यम् अदृष्टप्रेरणामन्तरेणेश्वरस्य साक्षान्मनःप्रेरकत्वोपपत्तेरदृष्टपरिकल्पना वैफल्यापत्तेः। ___ न चेश्वरस्य सर्वसाधारणत्वाददृष्टविकलस्य मनःप्रेरकत्वे न ततस्तस्य प्रतिनियतात्मसंबंधितेति
अदृष्टपरिकल्पना, तस्याऽचेतनत्वेनेश्वरसहितस्यापि प्रतिनियतमनःप्रवृत्तिहेतुत्वाऽयोगात्, अचेतनस्यापि 10 यदि कहा जाय कि- 'यह दोष निरवकाश है, क्योंकि जिस मन का जो स्वामी होगा उसी
आत्मा में समवेत सुखादि के ज्ञान को वह उस आत्मा में ही जन्म देगा न कि अन्य आत्मा में।' - तो यह कहना बेकार हैं क्योकि सर्व आत्मा जब सर्वव्यापी एवं समान देश अवस्थित है तब 'अमुक
मी अमुक ही आत्मा है' ऐसा प्रतिनियत सम्बन्ध ही सिद्ध नहीं हो सकता। ऐसा नहीं कह सकते - 'जिस आत्मा से जो मन पैदा हुआ है वही आत्मा उस का सम्बन्धी बनेगा' - क्योंकि 15 मन नित्य है, वह किसी से भी उत्पन्न नहीं हुआ, उस में किसी भी जीव से किसी भी प्रकार के प्रभाव का, न तो आधान हो सकता है न तो प्रच्यवन हो सकता है।
यदि कहेंगे कि - "जिस आत्मा से जो मन संयोग बनायेगा, वही उस का सम्बन्धी बन पायेगा' - तो यह भी ठीक नहीं है। कारण, पहले ही कह दिया है कि निरवयव आत्मा में एकदेश या समुचे
रूप से मन का संयोग अशक्य है, कदाचित् शक्य बन जाय तो सभी आत्मा सर्वव्यापक एवं समानदेशवर्ती 20 होने से एक मन का संयोग सभी के साथ होगा, प्रतिनियत सम्बन्ध नहीं हो पायेगा।
यदि कहा जाय - जिस आत्मा के अदृष्ट से जो मन सक्रिय बनेगा वह उसी आत्मा का संबन्धी कहा जायेगा। - तो यह गलत है क्योंकि अदृष्ट स्वयं जड है वह किसी भी मन को प्रतिनियत जीव के लिये ही सक्रिय नहीं कर सकता। फिर भी वैसा मानेंगे तो ईश्वरकर्तृत्व की कल्पना ही विध्वस्त हो जायेगी। यदि कहें कि “अदृष्ट जड होने से यद्यपि स्वयं मन को प्रेरित नहीं कर सकता 25 किन्तु ईश्वर से स्वयं प्रेरित हो कर वही अदष्ट (यहाँ व्याख्या में अदष्ट के लिये 'अदस' सर्वन
का ‘असौ' पुर्लिंग प्रयोग आर्ष होने से अदुष्ट है, अथवा असौ का अर्थ आत्मा लेना है) मन को सक्रिय बना सकता है” - तो बड़ी आपत्ति यह होगी - ईश्वर क्यों अदृष्ट द्वारा मन को प्रेरित करे - साक्षात् ही अपने सामर्थ्य से मन को प्रेरित कर देगा - बीच में अदृष्ट की क्या जरूर ? यानी
अदृष्ट की कल्पना ही अब निष्फल बन जायेगी। 30
* ईश्वर को मनःप्रेरणा के लिये अदृष्ट सहाय असंगत * यदि ऐसा कहा जाय - ईश्वर तो कार्यमात्र के प्रति साधारण कारण है। यदि अदृष्टनिरपेक्ष ही ईश्वर मन का प्रेरक बन जायेगा तो सभी आत्माओं के लिये विना पक्षपात प्रेरणा हो जाने से
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