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सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २
'व्यपदेशकर्मतापन्नज्ञाननिवृत्त्यर्थमव्यपदेश्यमिति विशेषणमिति केचित् प्रतिपन्नाः; तथाहि - इन्द्रियार्थसंनिकर्षादुपजातस्य ज्ञानस्य शब्देनाऽनभिधीयमानस्य प्रत्यक्षत्वम्' अयुक्तमेतत्, प्रदीपेन्द्रियसुवर्णादीनामभिधीयमानत्वेऽपि प्रत्यक्षत्वाऽनिवृत्तेः । न च ज्ञानस्याभिधीयमानत्वे करणत्वव्याहतिः, शक्तिनिमित्तत्वात् कारकशब्दस्य । न ह्यभिधीयमानार्थोऽन्यत्र तदैव परिच्छित्तिं न विदधाति । न चायं न्यायो नैयायिकैर्नाभ्युपगतः 5 ' प्रमेय ( त ) च तुलाप्रामाण्यवत्' ( न्यायद. २-१-१६) इत्यत्र प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । फलविशेषणपक्षेऽप्यभिधीयमानस्य स्वकारणव्यवच्छेदकत्वमस्त्येव ।
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'शब्दब्रह्मनिवृत्त्यर्थमेतद्' इत्येतदप्ययुक्तम् अप्रकृतत्वात् । शब्दप्रमेयत्वेऽपीन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्नत्वं अपेक्षा से शब्द का महत्त्व है न कि इन्द्रिय का । इन्द्रिय का विषयक्षेत्र सिर्फ संनिकृष्ट एवं स्व-स्व योग्य अर्थ ही है जब कि शब्द का विषयक्षेत्र तो पूरा अर्थविश्व है। कहीं भी शब्द का प्रचार स्खलित 10 नहीं है। भाष्यकारने ऐसा ही कहा है 'नामात्मक शब्द अर्थमात्र से संलग्न हैं ।' शब्द स्वर्गादि अतीन्द्रिय अर्थों का बोध करा सकता है, इन्द्रिय तो बेचारी वहाँ चुप हो जाती है। इस प्रकार इन्द्रिय एवं शब्द उभय से जन्य होने पर भी उस ज्ञान को शब्द की महत्ता के जरिये शाब्दप्रमाण से ही निर्दिष्ट किया जाता है ।
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[ व्यपदेशकर्मभूतज्ञान का व्यवच्छेद अशक्य ]
होती है, अतः कर्मत्वशक्ति से वह 'कर्म' (परिच्छेदकारकत्व) होने में कोई बाध नहीं का कर्म बनता है उसी काल में अन्य को करता है इस में कोई विरोध नहीं है। 25 में तुला के प्रामाण्य की तरह प्रमेयता भी
कुछ लोगों का यह कहना है :- 'अव्यपदेश्य' ऐसा विशेषण, व्यपदेश के कर्मभूत ज्ञान का व्यवच्छेद करने के लिये है । कैसे यह देखिये :- इन्द्रिय-विषय के संनिकर्ष से उत्पन्न होने पर भी जो ज्ञान शब्द से अभिहित ( = उल्लिख्यमान) न हो उसे प्रत्यक्ष मानना' यह अयुक्त है, प्रदीप, इन्द्रिय, सुवर्णादि पदार्थ भी शब्द से उल्लिखित होते हैं तो क्या वे प्रत्यक्ष नहीं होते ? यदि कहें कि 'ज्ञान की शब्द से उल्लिख्यमान दशा में वह 'कर्म' कारक बनेगा और तब उस के 'करणत्व' का 20 भंग होगा ।' तो यह भय निष्कारण है, क्योंकि कारक तो विवक्षा से होता है और विवक्षा शक्तिमूलक कारक बनता है तो करणत्व शक्ति से उस का 'करण' कारक होता । शब्द से उल्लिख्यमान अर्थ जिस काल में शब्द प्रत्यक्षादि में 'करण' बन कर परिच्छेद (बोध) भी उत्पन्न नैयायिकों को यह तथ्य अमान्य भी नहीं है । न्यायसूत्र मान्य की गयी है । तुला जैसे अन्य द्रव्य के भार के परिच्छेद में प्रमाण बनती है वही तुला अन्य तुला में आरूढ हो कर प्रमेय भी बनती है। सारांश, शब्द से उल्लिख्यमान होने मात्र से उस को प्रत्यक्षक्षेत्र से बहिष्कृत करना ठीक नहीं है किन्तु जब शब्द से उस का निरूपण करना इष्ट हो तब वह शब्दवाच्य ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं किन्तु शाब्द होता है, अतः उस के व्यवच्छेद के लिये 'अव्यपदेश्य' ऐसा विशेषण सार्थक बनेगा। मतलब, ज्ञानरूपफल 30 के विशेषण के रूप में अव्यपदेश्यपद मानने पर जो उल्लिख्यमान ज्ञान का स्वकारणव्यवच्छेदकत्व है वह अक्षुण्ण रहेगा । स्वकारणव्यवच्छेदकत्व यानी शाब्दबोधकारणभूत शब्द ( व्यपदेश ) का इस ज्ञान के कारणों में से बहिष्कार ।
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