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गाथा - १
पर्वतादिना स्वविषयेण सह चक्षुर्गोलकस्यानुपपन्नः, तत्प्रसाधकप्रमाणाभावात् ।
अथाऽस्ति तत्प्रसाधकं प्रमाणम् । ननु तत् किं प्रत्यक्षम् उतानुमानम् ? न तावत् प्रत्यक्षमत्र विषये प्रवर्त्तितुमुत्सहते । न हि 'देवदत्तचक्षुस्तद्विषयेण पर्वतादिना सम्बद्धम्' इत्यस्मदादेरक्षप्रभवा पतिपत्तिः । अथानुमानं तत्संनिकर्षप्रसाधनाय प्रवर्त्तते । ननु किं तदनुमानमिति वक्तव्यम् । अथ - - 'चक्षुः प्राप्तार्थप्रकाशकम् बाह्येन्द्रियत्वात् त्वगादिवत्' इत्येतदनुमानं तत्संनिकर्षप्रसाधनम् । न, चक्षुर्गोलक-तदर्थयोरध्य- 5 क्षेणैवासंनिकृष्टयोः प्रतिपत्तेरध्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेनास्य हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वात्, अवयविलक्षणस्य च चक्षुषोऽसिद्धेराश्रयासिद्धश्च हेतुः । अत एव स्वरूपासिद्धश्च । न हि अविद्यमानस्यावयविनो बाह्येन्द्रियत्वमुपपन्नम्। ‘त्वगादिवत्' इति निदर्शनमपि साध्य-साधनविकलम् ।
खण्ड-४,
में माना गया संयोगादि सम्बन्ध भी अस्तित्व में नहीं है, क्योंकि पूर्व ग्रन्थ में उस का निषेध किया जा चुका है एवं अग्रिम ग्रन्थ (खंड - ५ ) में भी किया जायेगा । काष्ठ और लाक्षा का जैसे परस्पर 10 संश्लेषरूप एवं परस्पर से कथंचित् अपृथक् सम्बन्ध सुविदित है वैसा भी कोई चक्षु आदि का सम्बन्ध दूरवर्ती अपने विषयभूत पर्वतादि के साथ युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि उस की सिद्धि करनेवाला कोई प्रमाण मोजूद नहीं है ।
[ प्रत्यक्ष या अनुमान से चक्षुसंनिकर्ष की अप्रसिद्धि ] चक्षुसंनिकर्ष का साधक प्रमाण अस्तित्व में है ।
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नैयायिक
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सिद्धान्ती :- वह कौन सा प्रमाण प्रत्यक्ष या अनुमान ? प्रत्यक्ष तो बेचारा यहाँ गति कर सके इतना उत्साहित ही नहीं है। ऐसी कोई भी इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष बुद्धि अस्तित्व में नहीं है जो सिद्ध कर सके कि देवदत्त का नेत्र अपने विषयभूत पर्वतादि के साथ सम्बद्ध है।
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यदि चक्षुसंनिकर्ष की सिद्धि के लिये अनुमान को मैदान में उतारेंगे तो बोलिये- वह कौन सा अनुमान है ?
नैयायिक :- 'चक्षु अपने से सम्बद्ध विषय को प्रकाशित करता है, क्योंकि वह 'बहिरिन्द्रिय' है जैसे स्पर्शनेन्द्रिय ।' इस अनुमानबल से हम चक्षुसंनिकर्ष की सिद्धि करेंगे।
तु में आश्रयासिद्धि,
सिद्धान्ती :- नहीं रे ! ऐसे कैसे सिद्धि होगी ? 'चक्षुगोलक एवं उस का विषय ( पर्वतादि ) असम्बद्ध है' ऐसी प्रत्यक्ष प्रतीति सार्वजनिक है। इस प्रत्यक्ष से हि आप के अनुमान का साध्य (सम्बद्धविषयप्रकाशकत्व) बाधग्रस्त है । प्रत्यक्ष बाधित साध्यनिर्देश के बाद जिस हेतु का प्रयोग किया 25 जाय वह तो कालात्ययापदिष्ट (बाधित) दोष से कलंकित होता है। दूसरा दोष है क्योंकि अवयवी स्वरूप चक्षुरूप पक्ष ही असिद्ध है । तीसरा दोष है जब अवयवी चक्षु ही असिद्ध है तब उस का बहिरिन्द्रियत्व भी कैसे सिद्ध होगा ? फलतः स्वरूप असिद्धि दोष भी रह गया । चौथा दोष स्पर्शनेन्द्रियादि का दृष्टान्त भी साध्य-साधनशून्य है क्योंकि अवयवीरूप स्पर्शनेन्द्रियादि असिद्ध होने से न तो उस में बहिरिन्द्रियत्व हेतु रहेगा, न प्राप्तार्थप्रकाशकत्व रह पायेगा । 4. जैनानां मते चक्षुषः, बौद्धानां मते चक्षुः श्रोत्रयोरप्राप्यकारित्वम् शेषाणां मते सर्वबाह्येन्द्रियाणां प्राप्यकारित्वम् । सांख्य-वेदान्तयोर्म मनसोऽपि प्राप्यकारित्वम् इति ध्येयम् ।
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