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खण्ड-४, गाथा-१
२८५ उदक(?के) तेज उखादिव्यवहितमप्युष्णस्पर्श जनयिष्यतीति नोदक उष्णस्पर्शोपलम्भादनुद्भूतभास्वररूपस्य तेजसः सिद्धिः।
यदपि 'चक्षुः स्वरश्मिसम्बद्धार्थप्रकाशकम् तैजसत्वात् प्रदीपवद्' इत्यनुमानम् - अनेन किं चक्षुषो रश्मयः साध्यन्ते उतान्यतः सिद्धानां ग्राह्यार्थसम्बन्धस्तेषां साध्यते ? इति। आद्ये पक्षे तरुणनारीनयनानां दुग्धधवलतया भासुररश्मिरहितानामध्यक्षतः प्रतीतेरध्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टो 5 हेतुः। अथ यदध्यक्षग्रहणयोग्यं साध्यमध्यक्षत एव तत्र नोपलभ्यते तत्र तद्बाधः कर्मणः, यथा 'ऽनुष्णोऽग्निः सत्त्वात्' इति । न चाध्यक्षग्रहणयोग्या नायना रश्मयः सदा तेषामदृश्यत्वात्। न, पृथिव्यादिद्रव्येऽपि तेषां वह प्रमाण होता है जो कि प्रमाता और प्रमेय से भिन्न होता है। इस व्याख्या के अनुसार योगी के प्रमाणभूत ज्ञान में उक्त सद्-असत् अर्थ सहकारी सिद्ध होता है, आप उस का निषेध कैसे कर सकते हैं ? यदि कहें कि दूरस्थित होने पर भी अर्थसमुदाय को हम सहकारी मान लेंगे तब तो 10 दिवार के ऊपर जो प्रभास्वरवर्णता निष्पन्न हुई है उस के प्रति किरणों के बदले दूरस्थित भी प्रदीप को सहकारी क्यों नहीं मान लेते ? मानेंगे तो राजमार्गमध्य भाग में प्रदीपरश्मि की सिद्धि नहीं हो पायेगी। तब उस के उदाहरण से नेत्रकिरण की अनुपलब्धि से उनके असत्त्व की सिद्धि में आप व्यभिचारदोषप्रदर्शन नहीं कर सकते। निष्कर्ष :- प्रत्यक्ष की तरह ही कई दोषों के कारण नेत्र की प्राप्यकारिता (रश्मि आदि द्वारा भी) अनुमान से सिद्ध नहीं है।
चक्षु में तैजस (किरणों) की सिद्धि के प्रसङ्ग में नैयायिक ने पहले जो कहा था कि तप्तजल में तैजसत्व (अग्नि) प्रविष्ट रहता है किन्तु उस का भास्वर रूप अनुद्भूत होने से वह नहीं दिखता है (एवं सुवर्ण में तैजसत्व होने पर भी उस का उष्ण स्पर्श अनुभूत होने से उपलब्ध नहीं होता) - उस का स्मरण कर के व्याख्याकार श्री अभयदेवसूरि कहते हैं कि उखा (भाजन विशेष) का व्यवधान रहने पर भी अग्नि जल में उष्णस्पर्श का प्रादुर्भाव कर सकता है, जल में अग्नि का प्रवेश मानने 20 की कोई जरूर नहीं है। तब जल में उष्णस्पर्श के अनुभव के द्वारा जल में अनुद्भूत भास्वररूपवाले अग्नि की सत्ता कैसे सिद्ध होगी ?
[चक्षु में स्वरश्मिसम्बद्धार्थप्रकाशकता का अनुमान - नैयायिक ] नैयायिकों का जो यह अनुमान है - ‘नेत्र अपने किरणों से स्पृष्ट अर्थ का प्रदर्शक होता है, क्योंकि तैजस हैं जैसे दीपक।' – उस में प्रश्न यह है कि इस अनुमान से आप किस की सिद्धि 25 करते हैं ? नेत्र के किरणों की सिद्धि करनी है या अन्य किसी प्रमाण से सिद्ध नेत्र-किरणों का विषय के साथ संनिकर्ष सिद्ध करना है ? आद्य पक्ष में हेतु कालात्ययापदिष्ट (= बाध) दोषग्रस्त बनेगा, क्योंकि युवती के नेत्र दुग्धवत् धवल दिखते होने से दीप्तिमन्त किरणों से विकल होने में प्रत्यक्ष प्रतीति ही साक्षिभूत है, अत एव प्रत्यक्षबाधित किरणरूप कर्म का निर्देश कर देने पर प्रयुक्त किया गया हेतु बाधित है।
30 नैयायिक :- कर्म (साध्य) का बाध वहाँ होता है जहाँ कर्म प्रत्यक्षग्रहणयोग्य होने पर भी प्रत्यक्ष से उपलब्धिशून्य हो। उदा० ‘अग्नि अनुष्ण है क्योंकि सत् है' यहाँ अनुष्णत्व साध्य प्रत्यक्षग्रहणयोग्य
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