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खण्ड - ४, गाथा - १
- साधनविकलत्वाद् दृष्टान्तस्य - निरस्तं दृष्टव्यम् ।
न चान्यत एव तस्य रश्मयः सिद्धा केवलमनेन प्राप्तार्थप्रकाशकत्वं तेषां साध्यते इति ( द्र०२८५४) वक्तव्यम् तत्सद्भावप्रतिपादकस्य प्रमाणस्याभावात् । अथ यद्यप्राप्तार्थप्रकाशकं चक्षुः अविशेषेण सर्वं प्रकाशयेत् । न, भावानां नियतशक्तित्वात् । यतो य एव यत्र योग्यः, स एव तत् प्रकाशयति, अन्यथा संयुक्तसमवायाऽविशेषाच्चक्षुर्यथा कुवलयरूपं प्रकाशयति तथा तद्गन्धमपि प्रकाशयेत्, तथा चेन्द्रियान्तरवैफल्यम् । 5 अथ योग्यताऽभावाद् न तत् तद्गन्धमवभासयति तर्हि योग्यताऽभावात् प्राप्त्यभावेऽपि नातिव्यवहितमतिसंनिकृष्टं वा तद्रूपं प्रकाशयतीति सर्वत्र योग्यतैवाश्रयणीया, नापरं सम्बन्धप्रकल्पनेन कृत्यम् । रश्मयो वा कुतो न लोकान्तमुपयान्ति ?' इति प्रेरणायां परेणाऽप्ययोग्यतैव तत्र, इतरत्र तु योग्यता प्रतिविधानही वह उपयोगी बनता है । निष्कर्ष, 'चक्षु तैजस है क्योंकि रूपादि मध्ये सिर्फ रूप का ही प्रदर्शक है जैसे प्रदीप' इस अनुमान प्रयोग का प्रदीपदृष्टान्त हेतुशून्य होने से वह अनुमान भी निरस्त हो जाता है । 10 [ नयनरश्मियों में रूपप्रकाशकत्व की सिद्धि अशक्य ]
किन्तु
पहले नैयायिक का ( पृ० २८५ - पं० २६) एक अभिप्राय आशंकित था उसी को दूसरे ढंग से दोहराते हुए वे कहते हैं 'चक्षु के रश्मि तो अन्य प्रमाण से सिद्ध ही है, उक्त रूपप्रकाशकत्वहेतुक अनुमान से तो हमें सिर्फ नयन रश्मियाँ में सम्बद्ध अर्थ के प्रकाशकत्व की सिद्धि ही अभिप्रेत है ।' यह भी गलत है क्योंकि नयनों के रश्मियों को सिद्ध करने वाला कोई नैयायिक :- यदि चक्षु के रश्मि नहीं स्वीकारेंगे तो अर्थ के साथ असम्बद्ध अर्थ का प्रकाशक बन जाने से अपने से असम्बद्ध सारे विश्व बन जायेगा । अतः नेत्र - रश्मि को मानना होगा।
जैन :- नहीं, असम्बद्ध अर्थ - प्रकाशकत्व होने पर भी सारे विश्व के पदार्थों का वह प्रकाशक नहीं होगा क्योंकि चक्षु की इतनी प्रबल शक्ति ही नहीं है । भावमात्र की शक्ति नियत यानी मर्यादित होती 20 है । शक्तिमर्यादा का मतलब यह है कि जिस कार्य को करने की योग्यता जिस पदार्थ में होती है, वह उसी कार्य का प्रकाश ( प्रादुर्भाव या ज्ञापन ) कर सकता है। यदि इस तथ्य का इनकार करेंगे तो विपदा यह आयेगी की चक्षु संयुक्त- समवायसंनिकर्ष के द्वारा जब रूप का प्रकाशन करती है तब उस द्रव्य के गन्ध का भी प्रकाशन करने लग जायेगी ( सम्बद्धार्थता अक्षुण्ण होने से ।) फलतः एक ही चक्षु से सभी द्रव्यों के रूप-रसादि का प्रकाशन हो जाने पर अन्य इन्द्रियाँ बेकार बन जायेगी। 25 यदि योग्यता न होने के कारण चक्षु किसी द्रव्य के गन्ध का प्रतिभासन नहीं करती है ऐसा कहेंगे तो प्रस्तुत में भी कह सकते हैं कि चक्षु योग्यता न होने के कारण सभी पदार्थों के रूप का प्रकाशन नहीं कर सकती, मर्यादित योग्यता (शक्ति) के कारण मर्यादित अप्राप्त पदार्थों को ही देख सकती है । तात्पर्य, अति दूरस्थ और अतिनिकटवर्त्ती अप्राप्त पदार्थों का प्रकाशन करने की योग्यता चक्षु में नहीं है अत एव सर्वत्र इस प्रकार आखिर तो योग्यता का ही आशरा है । अन्य किसी सम्बन्ध 30 ( संनिकर्ष) की कल्पना करना बिनजरूरी है। नेत्र के रश्मियों की कल्पना भी इसलिये अयुक्त है कि वहाँ भी जब प्रश्न होगा कि नेत्रकिरण दूर- सुदूर लोकान्त तक पहुँच कर लोकान्तवर्त्ती पदार्थों का
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प्रमाण ही नहीं है । संनिकर्ष न होने पर चक्षु पदार्थों का वह प्रकाशक
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