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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ साध्यत्वप्रसक्तेः। तथाहि- 'रश्मिवन्तो भूम्यादयः सत्त्वात् प्रदीपवत्' इत्यनुमातुं शक्यत्वात्। यथैव हि तैजसत्वं प्रदीपे रश्मिवत्तया व्याप्तमुपलब्धं तथा सत्त्वमपि। 'अस्यान्यथाऽपि सम्भावना न तैजसत्वस्य' इति कुतो विभागः ? अथ भूम्यादेस्तत्साधनेऽध्यक्षबाधः। न, दुग्धवलक्षाबलालोचनानामपि तत्साधने
तद्विरोधः समानः। अथ वृषदंशचक्षुषोऽध्यक्षतो वीक्ष्यन्ते रश्मयः इति कथं तद्विरोधः ? ननु यदि तत्र 5 त ईक्ष्यन्तेऽन्यत्र किमायातम् ? तत एवान्यत्र तत्साधने हेम्नि पीतत्वप्रतीतौ रजते पीतत्वप्रसङ्गः, प्रमाण
बाधनमुभयत्र तुल्यम्। ___अथ तत्र तत्प्रतीतेर्नान्यत्र सत्त्वेन ते साध्यन्ते अपि त्वनुमानतः, तत् तु दृष्टान्तमात्रम्। नन्वत्र 'नेत्रत्वात्' इति यदि हेतु: तैजसत्वात्' (२८५-३) इत्यस्यानर्थक्यम् अत एव प्रकृतसिद्धेः। अध्यक्षबाधा
चाऽत्रापि तदवस्थैव। 'तैजसत्वात्' इत्यस्य हेतुत्वे प्रदीपदृष्टान्तेनैवार्थसिद्धेवृषदंशनेत्रनिदर्शनमनर्थकम् । न 10 होने पर भी अग्नि में उस की उपलब्धि न होने के कारण अनुष्णत्व कर्म बाधित होता है। नेत्र
के किरण प्रत्यक्षग्रहणयोग्य ही नहीं है क्योंकि वे सदा के लिये अदृश्य हैं। अतः युवति के नेत्र में किरणों की अनुपलब्धि के द्वारा वहाँ उस का बाध नहीं माना जा सकता।
[पृथ्वी आदि में किरणसिद्धि का अनिष्ट ] __जैन :- इस तरीके से तो पृथ्वीजलादिद्रव्यों में भी तैजसत्व की सिद्धि निर्बाध हो सकेगी। देखिये 15 – 'पृथ्वी आदि किरणवन्त है क्योंकि सत् हैं, उदा० दीपक।' इस प्रकार से अनुमान सुकर है। यहाँ
सकते हैं - नयनकिरण की तरह प्रत्यक्षयोग्यता न होने से बाध दोष निरवकाश रहेगा। दीपक में तैजसत्व जैसे रश्मिवत्त्व से व्याप्त है वैसे ही यहाँ भी सत्त्व हेतु रश्मिवत्त्व से व्याप्त हो सकता है। यदि कहें कि यहाँ सत्त्व हेतु के लिये व्यभिचार की सम्भावना शक्य है - तो तैजसत्व
में भी वह क्यों नहीं हो सकती ? यदि कहें कि प्रत्यक्ष से पृथ्वी आदि में रश्मिवत्त्व का बाध 20 है - तो यह गलत हैं क्योंकि युवति के नेत्रों में भी दुग्धवत् धवलिमा होने के कारण 'रश्मिवत्त्व' को मानने में बाध तुल्य ही है।
यदि कहें कि - ‘मार्जार के नेत्रों में प्रत्यक्ष से ही किरण दृश्य हैं - तो वहाँ विरोध कैसा ?' तो प्रश्न यह है कि यदि मार्जार के नेत्रों में किरण दिखता है उस से धवलाक्षी युवति के नेत्र
को क्या फायदा हुआ ? यदि मारिनेत्र के रश्मियों के आलम्बन से धवलाक्षी के नेत्रों में (सिर्फ 25 दृष्टान्तमात्र से) किरणों की सिद्धि करने का प्रयत्न करेंगे तो सुवर्णगत पीतवर्ण के आलम्बन से रजत में भी पीतवर्ण की सिद्धि क्यों नहीं होगी ? यदि रजत में पीतवर्ण प्रमाणबाधित है तो धवलाक्षी के नेत्र में किरण भी प्रमाणबाधित ही हैं। प्रमाणबाध दोनों पक्ष में समान है।
[ नारीनेत्रों के रश्मि की सिद्धि में हेतुदोष एवं प्रत्यक्षबाध ] यदि कहा जाय :- ‘मार्जारनेत्र में प्रत्यक्ष से किरणों की प्रतीति होती है - इतने मात्र से ही 30 अन्यत्र नारीनयनों में सत् रूप से हम उन की सिद्धि नहीं करते हैं किन्तु अनुमान से सिद्धि करते
हैं, मार्जारनेत्र तो सिर्फ इस अनुमान में दृष्टान्तरूप से ही प्रस्तुत करते हैं।' – तो यहाँ भी प्रश्न है कि उस अनुमान में आप मार्जारनेत्र-नारीनेत्र दोनों में रहनेवाले 'नेत्रत्व' को हेतु बनायेंगे या तैजसत्व को ? नेत्रत्व को हेतु करेंगे तो पहले पूर्वपरिच्छेद (२८५-२४) में जो आपने तैजसत्व को हेतु बनाया
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