________________
5
सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २
अपि च, जात्यादिविशेषणविशिष्टार्थग्राहि विकल्पज्ञानम्, न च जात्यादीनां सद्भाव:, तत्त्वेऽपि तद्विशिष्टग्रहणं बहुप्रयाससाध्यमध्यक्षं न भवति । उक्तं
(प्र.वा. २ / १४५, १४६ )
“ विशेषणं विशेष्यं च सम्बन्धं लौकिकीं स्थितिम् । गृहीत्वा संकलय्यैतत् तथा प्रत्येति नान्यथा ” ।। “संकेतस्मरणोपायं इष्टसंकलनात्मकम् । पूर्वापरपरामर्शशून्ये तच्चाक्षुषे कथम् । ।" इति । अतोऽर्थसंनिधानाऽभावेऽपि भावान्नार्थप्रभवा विकल्पाः ।
२३६
अथ मा भूवन् राज्यादिविकल्पाः अर्थप्रभवाः, इदन्ताविकल्पास्त्वर्थमन्तरेणानुद्भवन्तः कथं नार्थप्रभवा: ? तदुक्तम् 'नान्यथेदंतया ” ( ) इति चेत् ? न, इदन्ताविकल्पानामपि वस्तुप्रतिभासित्वाऽसम्भवात् । न हि शब्दसंसर्गयोग्यार्थप्रतिभासिनो विकल्पा वस्तुनिश्चयात्मकाः, अन्यथा शब्दप्रत्ययस्याध्यक्षप्रतीतितुल्यता भवेत्। उक्तं च - 'शब्देनाऽ व्यापृताक्षस्य बुद्धावप्रतिभासनात् । अर्थस्य दृष्टाविव तदनिर्देशस्य वेदकम् ।।” 10 ( ) इति । तन्नार्थाक्षप्रभवत्वं व्यवसायस्येति प्रत्यक्षत्वमयुक्तम् ।
25
-
हो सकता, उस वक्त अर्थ (या अक्ष) के न होने पर भी चाक्षुष ज्ञान हो जायेगा ।” [ जाति आदिविशिष्टार्थग्राहि विकल्प में प्रत्यक्षत्व का असंभव ]
ज्ञातव्य है कि विकल्पज्ञान जाति आदि विशेषणों से आश्लिष्ट ( न कि शुद्ध ) अर्थ को ग्रहण करता है। वास्तव में जाति आदि तो अपारमार्थिक हैं। अगर पारमार्थिक हो, फिर भी उन से आश्लिष्ट 15 अर्थ का ग्रहण वाया वाया अनेक प्रयासों से ही किया जाता है फिर वह अध्यक्ष कैसे ? ( अध्यक्ष में वाया वाया कोई भान नहीं होता, साक्षात् होता है ।) कहा गया है प्रमाणवार्त्तिक में “पहले विशेषण, फिर विशेष्य, फिर उन दोनों का संसर्ग, फिर लौकिक प्रणालिका... इन का संकलन कर के ही विकल्पप्रतीति होती है, अन्यप्रकार से नहीं।” “चाक्षुष तो पूर्व अपर संकलन से शून्य होता है, उस में ऐसी प्रतीति को अवकाश ही कहाँ है जो संकेतस्मृतिरूप उपाय द्वारा पूर्वदृष्ट का संकलन 20 करनेवाली हो ?” [२/१४५-१४६]
-
निष्कर्ष, अर्थ उपस्थिति के विरह में भी होने वाले विकल्प अर्थजन्य नहीं हो सकते । नैयायिक :- भावि राज्य प्राप्ति के सपने देखने वाले विकल्प भले अर्थजन्य न हो, किन्तु वर्त्तमानोल्लेखकारी 'ये' ऐसे आकारवाले विकल्प जो कि अर्थ के विरह में कभी नहीं होते उन को अर्थजन्य क्यों न माने जाय ? कहा भी है। 'ये' इस रूप से होनेवाले विकल्प अर्थ के विना... ( नहीं होते ।) सौगत :हम निषेध करते हैं, 'ये' इस रूप से होने वाले विकल्पों में भी वस्तुप्रकाशकत्व नहीं घटता । शब्द संसर्ग के योग्य सामान्यलक्षण वस्तु (काल्पनिक अर्थ ) के प्रतिभासक विकल्प वास्तविक स्वलक्षण अर्थ के निश्चयात्मक क्यों कर हो सकता हैं ? यदि हो सकते हैं तो शब्दजन्य सभी विकल्प भी प्रत्यक्षप्रतीति की कक्षा में आ जायेंगे। कहा गया है (द्रष्टव्य :- द्वि० खंड पृ० २३०-६) “ नेत्र इन्द्रियप्रयोग के विना, दर्शन में अर्थ का जैसा ( स्पष्ट ) प्रतिभास होता है वैसा शाब्दबुद्धि 30 में नहीं होता इसलिये दर्शन शब्द से अनाश्लिष्ट अर्थ का वेदक होता है । ( अर्थात् विषय भेद के कारण ही शब्दजन्यबुद्धि और प्रत्यक्षबुद्धि में भेद है ।) अत एव व्यवसाय को अर्थ एवं इन्द्रिय का कार्य मानना युक्त नहीं है और इसीलिये उस को प्रत्यक्ष भी मानना अयुक्त है।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
—
www.jainelibrary.org