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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ न च संनिकर्षस्य प्रामाण्यं सूत्रकृता नेष्टं 'संनिकर्षविशेषात् तद्ग्रहणम्' ( ) इति वचनात्, ग्रहणहेतोश्च प्रामाण्यम् । न च कर्मकर्तृरूपता तस्येति, कर्म-कर्तृविलक्षणस्य ज्ञानजनकत्वात् कथं न तस्य प्रामाण्यम् ?
एवमिन्द्रियाणामपि प्रमाणत्वं सूत्रकृतोऽभिमतम् ‘इन्द्रियाणि अतीन्द्रियाणि स्वविषयग्रहणलक्षणानि' 5 () इति वचनात् । न च प्रमाणसहकारित्वात् तेषां प्रमाणत्वम् अन्यस्येन्द्रियात् प्रागुपग्राहकस्योपग्राहिणोऽभावात्
भावेऽप्यज्ञानरूपत्वात् तस्य न प्रमाणता भवेदित्यव्याप्तिस्तदवस्थैव । प्रदीपादीनां चाज्ञानात्मकत्वेऽपि प्रमाणत्वं प्रसिद्ध लोके।
तथा सुवर्णादेः 'प्रमेया च तुलाप्रामाण्यवत्' (न्या.द.२-१-१६) इति प्रामाण्यं प्रतिपादितं सूत्रकृता। प्रत्यक्षत्व की अव्याप्ति आयेगी। (अब क्रमशः संनिकर्ष, इन्द्रिय, सुवर्ण और तुला में प्रत्यक्षत्व की 10 अव्याप्ति कैसे होती है, तथा इन्द्रियगति की अनुमिति में लिङ्गभूत इन्द्रियार्थसंनिकर्ष में प्रत्यक्षत्व की अतिव्याप्ति कैसे होती है - यह क्रमशः कहा जायेगा।)
[संनिकर्ष एवं इन्द्रियों के प्रामाण्य का समर्थन ] यह नहीं कह सकते कि सूत्रकार को संनिकर्ष में प्रामाण्य अमान्य है क्योंकि 'संनिकर्षविशेष से उस का ग्रहण होता है' ऐसे मतलब के सूत्रवचन से संनिकर्ष की प्रमाणता सूचित होती है। सूत्रकार 15 के वचन से ग्रहणहेतु संनिकर्ष की प्रमाणता निर्बाध है। यदि पूछे कि संनिकर्ष प्रमाण का कर्म है
या कर्ता तो उत्तर यह है कि वह न तो कर्म है न कर्ता किन्तु कारण है। तात्पर्य, कर्म-कर्ता से विभिन्न ऐसा करणात्मक संनिकर्ष ज्ञानजनक है तब उस में प्रामाण्य का अपलाप कैसे किया जाय ?
संनिकर्ष की भाँति इन्द्रियों की प्रमाणता भी सूत्रकार को मान्य है, साक्षि है ‘अपने विषय को ग्रहण करनेवाली ईन्द्रियाँ अतीन्द्रिय हैं' इस भाव का सूत्रवचन। विषयग्रहण (प्रमिति) में इन्द्रिय करण 20 है इसलिये वह प्रमाण है। प्रमिति के करण को प्रमाण कहते हैं। यदि कहें कि - ‘इन्द्रिय तो स्वयं
प्रमितिकरण = प्रमाण नहीं है किन्तु प्रमाण का सहकारि होने से उपचारतः प्रमाण है' - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इन्द्रिय को सहकारि तभी कहा जा सकता है जब उपग्राहक इन्द्रिय के पहले उस से अन्य कोई उपग्राह्य यानी सहकार्य का अस्तित्व हो। ऐसा तो कुछ है नहीं। यदि वैसा कोई
पूर्ववर्ती भाव होने की कल्पना की जाय तो वह भी अज्ञानरूप ही होगा, इस स्थिति में संनिकर्षादि 25 की तरह उस में प्रमाणता न घटने से ही अव्याप्ति तदवस्थ रहेगी। ऐसा नहीं है कि जो अज्ञानरूप हैं वे प्रमाण नहीं होते, प्रदीपादि अज्ञानरूप होने पर भी लोक में प्रमाण गिने जाते हैं।
[ तुला की तरह सुवर्णादि के प्रामाण्य का समर्थन ] न्यायसूत्रकार ने – 'तुला के प्रामाण्य की भाँति (सुवर्णादि) प्रमेयों भी प्रमाणभूत हैं' - ऐसे भावार्थवाले सूत्र के द्वारा सुवर्णादि प्रमेयों का भी प्रामाण्य मान्य किया है। सूत्र का प्रगट अर्थ ऐसा 30 है - जब सुवर्णादि को तुला के द्वारा तुला जाता है तब तुला ही प्रमाण हे। तुला का प्रामाण्य
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