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सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २
अपरे तु स्मर्यमाणशब्दसहायेन्द्रियार्थसंनिकर्षजमप्यव्यभिचारिपदापोह्यमेव मरीचिषु 'उदकम्' इति शब्दोल्लेखवज्ज्ञानं मन्यन्ते । अव्यपदेश्यपदव्यवच्छेद्यं तु यत्र प्रथमतः एवेन्द्रियसंनिकृष्टेऽर्थे संकेतानभिज्ञस्य श्रूयमाणाच्छब्दात् 'पनसोऽयम्' इति ज्ञानमुत्पद्यते तत्र शब्दस्यैव तदवगतौ प्राधान्यात् इन्द्रियार्थसंनिकर्षस्य तु विद्यमानस्यापि तदवगतावप्राधान्यात् तदेवाव्यपदेश्यपदव्यवच्छेद्यम् न पुनरवगतसमयस्मर्यमाणशब्दसचि5 वेन्द्रियार्थसंनिकर्षप्रभवम् तत्र तत्संनिकर्षस्यैव प्राधान्याद् वाचकस्य च तद्विपर्ययात् । ननु सामग्र्यां कस्य व्यभिचारः ? कर्तुः, करणस्य कर्मणो वा ? तत्र स्वाकारसंवरणेनाकारान्तरेण ज्ञानजननात् कर्मणो व्यभिचारः कर्त्तृ- करणयोस्तु तथाविधकर्मसहकारित्वादसाविति मन्यन्ते । भवत्वयं व्यभिचारः, न त्वेतन्निवृत्त्यर्थमव्यभिचारिपदोपादानमर्थवत् अनिन्द्रियार्थसंनिकर्षजत्वादेव तन्निवृत्तिसिद्धेः । नहि ज्ञानरूपके लिये 'अव्यभिचारि' पद सार्थक बनता है। अगर ऐसे ज्ञान को नहीं मानेंगे तो आगे 'जल' शब्द 10 का स्मरण कैसे होगा ? ) जलज्ञान उदित होने पर उक्त न्याय से जल शब्द का अनुस्मरण होगा । फिर बाद में उस स्मरणान्तर्वर्त्ति जल के सहकार से इन्द्रिय अर्थसंनिकर्ष के द्वारा 'जल है' ऐसे जलशब्दोल्लेखगर्भित जलज्ञान होगा। यहाँ जो पहले 'जल' शब्द अनुस्मरण के निमित्तभूत जलग्रहण उदित हुआ था वह शब्दजन्य नहीं है इसलिये अव्यपदेश्यपद से उस की व्यावृत्ति असंभव होने पर अव्यभिचारिपद से ही उस की निवृत्ति माननी होगी । कुछ लोगों का यह निर्विवाद मत है । [ अव्यभिचारि पद - व्यावर्त्य मरीचि में जलज्ञान - अन्य मत ]
कुछ दूसरे लोगों का मत यह है मरीचिवृंद में 'जल' ऐसे शब्दोल्लेखवाला ज्ञान जो स्मृतिविषयभूतशब्दसहकृत इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्य है वही अव्यभिचारिपद का व्यावर्त्य है ।
प्रश्न : 'अव्यपदेश्य' पद से किस का व्यावर्त्तन करेंगे ?
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उत्तर :- जहाँ पहले पहले ही इन्द्रियसंनिकृष्ट अर्थ के बारे
संकेत से अजाण व्यक्ति को शिक्षकादि 20 का शब्द सुन कर 'यह फणस है' ऐसा ज्ञान उत्पन्न होता है वहाँ इस ज्ञान में शब्द की ही महत्ता है, इन्द्रियसंनिकर्ष वहाँ है किन्तु इस ज्ञान के जनन में उस का महत्त्व नहीं है। ऐसे शब्दजन्य ज्ञान को प्रत्यक्षपरिधि से बाहर करने के लिये 'अव्यपदेश्य' पद सार्थक होगा। लेकिन जहाँ संकेत के जानकार आदमी को स्मृतिस्फुरितशब्द सहकृत इन्द्रियार्थसंनिकर्ष से 'जल' ऐसा शब्दोल्लेख गर्भित ज्ञान उत्पन्न होता है वहाँ तो इन्द्रियसंनिकर्ष का ही महत्त्व होने से, वाचक शब्द का महत्त्व न होने से, वह 25 ज्ञान 'अव्यपदेश्य' पद से व्यावृत्त नहीं हो सकता । अतः उस के व्यावर्त्तन के लिये 'अव्यभिचारि' पद आवश्यक बना रहेगा ।
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प्रश्न : आपने कहा
व्यभिचारिज्ञान प्रत्यक्ष की परिधि में नहीं आता तो वह ज्ञान किस का व्यभिचारि है ? कर्त्ता का, करण का या कर्म (यानी जलादि) का ? प्रश्न का तात्पर्य यह है कि उस ज्ञान की सामग्री में प्रत्यक्षसामग्री के किसी अंग का चाहे कर्त्ता - करण-कर्म किसी का भी वैकल्य 30 होगा तभी वह व्यभिचारी कहा जाता होगा ! वैकल्य किस का है ?
उत्तर :- कर्त्ता-करण का वैकल्य नहीं है किन्तु कर्म का ही व्यभिचार है क्योंकि मरीचि अपने आकार को छीपा कर अन्य (जल) आकार से वहाँ जनक ज्ञान होते हैं यानी प्रत्यक्ष में कर्म (जल) जैसा होना चाहिये वैसा यहाँ नहीं है । कर्त्ता करण विद्यमान होने पर भी उन का काम एक ही है
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