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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ एव- न तत्सद्भावः इति बाधकम्” इति चेत् ? न, एकान्तभेदाभेदपक्षस्य तत्राऽनिष्टेः। त एव विशेषाः कथञ्चित् परस्परं समानपरिणतिभाज इत्यस्मदभ्युपगमात्। न च चित्रकविज्ञानवत् समानाऽसमानपरिणतेरेकत्वविरोधः, 'यदेवाहमद्राक्षं तदेव स्पृशामि-आस्वादयामि-जिघ्रामि' इति प्रतीतेर्गुण-गुणिनोरेकत्व
प्रतीतेः । न च यदेव रूपं दृष्टं तदेव कथं स्पृश्यते इन्द्रियविषयसंकरप्रसक्तेरिति वक्तव्यम्, चक्षुर्ग्राह्यतास्वभावस्यै5 कस्य स्पर्शनादिविषयतास्वभावाऽविरोधात्।
तथाहि- दूरादिदेशं सहकारिणमासाद्यैकोऽपि भूरुहोऽविशदतयेन्द्रियजे प्रत्यये प्रतिभाति स एव निकटादिदेशसचिवो विशदतयेत्युपलब्धम् । न चाऽविशदं दर्शनमवस्तुविषयम् तस्य वस्तुविषयतया प्रतिपादितत्वात् । न च ‘चक्षुःप्रभवे प्रत्यये रूपमेव चकास्ति नापरस्तद्वान्' इति वक्तव्यम्। यतोऽत्रापि Aस्तम्भव्यपदेशार्ह
रूपं किमेकं प्रतिभाति Bउतानेकाऽनंशपरमाणुसञ्चयमात्रम् ? Aप्रथमपक्षेऽधो-मध्योर्ध्वात्मकैकरूपवद्रसाद्यात्म10 तो 'विशेष' ही शेष रहा - यही बाधक है ?” – तो यह अयुक्त है, क्योंकि एकान्त दर्शन में सामान्यविशेषों का एकान्त भेद या एकान्त अभेद मानने में ऐसा बाधक अनिष्ट हो सकता है, किन्तु अनेकान्तवादी जैनदर्शन में तो कथंचित् भेदाभेद पक्ष मान्य है, क्योंकि वे ही विशेष कथंचित् परस्पर समानाकारपरिणाम धारक होते हैं न कि सर्वथा भिन्न । यदि कहें कि – 'जैसे चित्राकार एक विज्ञान में नीलाकार पीताकार
परस्पर विरुद्ध होने से वह एक नहीं होता, वैसे ही एक वस्तु के समानाकार-असमानाकार परिणाम 15 भी विरुद्ध होने से वहाँ ‘एकत्व' नहीं हो सकता' – तो यह गलत है क्योंकि 'जिस को मैं देखता
हूँ उसी को छूता हूँ' - 'जिसको मैं सूंघता हूँ उसी को में चखता हूँ' इन प्रतीतियों में गुण-गुणी का कथंचिद् एकत्व स्पष्ट ही प्रतीत होता है। (ऐसे ही समानाकार एवं असमानाकार एक ही वस्तु स्पष्ट प्रतीत होती है। ऐसा मत कहना कि - जिस को (रूप को) देखा है उसी को छूता हूँ (स्पर्श करता
हूँ) ऐसा भान कैसे शक्य है ? इन्द्रियों के विषय में संकर दोष नहीं होना चाहिये। यहाँ तो एक 20 ही रूप चक्षु एवं त्वगिन्द्रिय दोनों का ‘विषय' बताया जा रहा है यही संकर दोष है। - इस कथन
के निषेध का कारण यह है कि एक ही घटादिपदार्थ में नैत्रेन्द्रियग्राह्यस्वभावता के साथ साथ स्पर्शनादिइन्द्रियविषयतास्वभाव मानने में कोई विरोध नहीं है, इसी लिये 'जिस घट को देखता हूँ उसी को छूता हूँ' ऐसी प्रतीति सर्वजनसिद्ध है। अनुभवसिद्ध का अपलाप कैसे हो सकता है ?
[ एक ज्ञान की अनेकवस्तुविषयता में अविरोध ] 25 अविरोध कैसे है यह देखिये - एक ही वृक्ष दूरदेशादि सहकारि के सानिध्य में इन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष
में अस्पष्टरूप से ज्ञात होता है, वही वृक्ष निकटदेशादि सहकारि के सान्निध्य में स्पष्टरूप से भासित होता है। यहाँ स्पष्टरूप और अस्पष्टरूप ऐसे विरुद्ध धर्म एक ही वृक्ष में अविरोध से रहते हैं। 'अस्पष्ट दर्शन वस्तुस्पर्शी नहीं है' ऐसा कहना गलत है क्योंकि अस्पष्टदर्शन भी वस्तुविषयक ही
होता है यह पहले कह चुके हैं। ऐसा नहीं है कि चाक्षुष प्रत्यक्ष में सिर्फ रूप ही अकेला भासित 30 हो, न कि रूपवान् पदार्थ (स्तम्भादि द्रव्य)। यदि अकेला रूप भासता है तब प्रश्न खडा होगा कि
जो रूप भासता है उसे स्तम्भादि कैसे कहते हैं ? यदि जो रूप भासता है उसे आप स्तम्भ/कुम्भ कहते हैं तो यहाँ दो प्रश्न होंगे - क्या वह स्तम्भसंज्ञक रूप 'एक' ही भासता है या Bनिरंश
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