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खण्ड-४, गाथा - १
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कैकस्तम्भप्रसिद्धिः। Bद्वितीयपक्षेऽपि किमेकमनेकपरमाण्वाकारं चक्षुर्ज्ञानम् उतैकैकपरमाण्वाकारमनेकम् ? 'प्रथमपक्षे रूपाद्यात्मकैकवस्तुसिद्धिप्रसक्तिः चित्रैकज्ञानवत् । द्वितीयेऽपि विविक्तज्ञानपरमाणुप्रतिभासस्याS संवेदनात् सकलशून्यताप्रसक्तिरिति प्रतिपादितम् । एतेन क्रियावतोऽपि भावस्याध्यक्षविषयता प्रतिपादिता । न चैकस्य देशाद् देशान्तरप्राप्तिहेतुः क्रिया न केनचित् प्रमाणेनावसातुं शक्येति वक्तव्यम् - पूर्वपर्यायग्रहणपरिणामममुञ्चताऽध्यक्षेणोत्तरपर्यायग्रहणात् यथा स्तम्भादावधोभागग्रहणमत्यजतोर्ध्वादिभागग्रहस्तेन, अन्यथा 5 सकलशून्यतेत्युक्तत्वात् ।
यदपि - विशेषणं विशेष्यं च सम्बन्धं लौकिकीं स्थितिम् ।
गृहीत्वा संकलय्यैतत् तथा प्रत्येति नान्यथा । (प्र.वा. २ - १४५ ) इत्युक्तं तदपि निरस्तं द्रष्टव्यम् चित्रपतङ्गस्येवैकानेकात्मनो वस्तुनः प्रथमतयैव प्रतिभासनात् एवंकल्पनाया दूरापास्तत्वात् । यदपि - अनेकपरमाणुपुञ्ज भासता है ? Aपहले पक्ष में, अधो-मध्य-ऊर्ध्व लम्बे स्तम्भात्मक एक रूप की तरह 10 अधो-मध्य-ऊर्ध्व एक रस स्तम्भ, वैसा ही एक गन्ध स्तम्भ... इस प्रकार अनेक स्तम्भों की सिद्धि प्रसक्त होगी। दूसरे पक्ष में, दो विकल्प होंगे १ 'क्या एक ही चाक्षुष ज्ञान अनेकपरमाणुआकारवाला होता है या वहाँ एक एक परमाणुआकार अनेकज्ञान होते हैं ? प्रथम विकल्प में, यदि चित्र ज्ञान की तरह रूप रसादिस्वरूप एक वस्तु मानेंगे तो रूप और रूपात्मक स्तम्भपदार्थ के भासने की विपदा आयेगी। ( आपने पहले कहा है कि रूप ही अकेला भासता है न कि रूपवान पदार्थ यह कथन 15 डूब जायेगा ।) दूसरे विकल्प में वहाँ एक ज्ञान है नहीं, अनेक ज्ञान भासते हो ऐसा संविदित नहीं होता, फलतः न ज्ञान सिद्ध होगा, न ज्ञानाधीन ज्ञेय की सिद्धि होगी, अतः सर्वशून्यता प्रसक्त होगी
यह पहले (१८८ - १०) भी कह आये हैं । जिस तरह यहाँ रूप एवं रूपवान् पदार्थ के प्रत्यक्ष की बात हुयी वैसे ही यहाँ क्रिया और क्रियावान् पदार्थ के प्रत्यक्ष की बात भी स्वयं समझ सकते हैं । ऐसा नहीं कह सकते कि एक स्थान से दूसरे स्थान में गमन का हेतु ही क्रिया है जो किसी 20 भी प्रमाण से ग्रहणयोग्य नहीं होती ( क्योंकि वहाँ स्थानभेद से वह द्रव्य ही दिखाई देता है ।) ऐसे कथन के निषेध का हेतु यह है कि जैसे एक ही दीर्घ ज्ञान, स्तम्भ के अधोभाग के ग्रहण को न छोड़ता हुआ ही मध्य एवं ऊर्ध्वभाग को ग्रहण कर लेता है वैसे ही एक ही ज्ञान स्थानान्तरप्राप्ति हेतु पूर्वक्रिया पर्याय को ग्रहण करने के परिणाम को न छोडते हुए उत्तरक्रियापर्याय को ग्रहण करे उसमें कोई बाध नहीं है। इस बात को न मानने पर पूर्ववत् सर्वशून्यता ही प्रसक्त होगी । [ प्रथम दर्शन में ही एकानेकस्वरूप वस्तु का बोध ] बौद्धोंने प्रमाणवार्त्तिक ( २ - १४५ ) में जो कहा है “ ( यह विशाल स्तम्भ है इत्यादि प्रतीतियाँ वास्तविक एक प्रत्यक्ष से नहीं होती किन्तु) विशेषण, विशेष्य, ( उन का ) सम्बन्ध एवं (उस के ) लौकिक व्यवहार को जानने के बाद ( उन्हें ) संकलित कर के तथाविध प्रतीति होती है न कि दूसरे प्रकार से । ”
यह भी अब निरस्त हो जाता है। कारण, रंगबिरंगी पतंगे की तरह प्रथम दर्शन में ही एक-अनेकात्मक 30 वस्तु भासित हो जाती है अतः पहले विशेषण, बाद में विशेष्य, फिर सम्बन्ध, इत्यादि कल्पित प्रक्रिया निरस्त हो जाती है। प्रमाणवार्त्तिक (२-१७४ ) में जो यह कहा है “ संकलनात्मक (शब्दयोजनात्मक)
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