________________
खण्ड-४, गाथा-१
२१९ अर्थशब्देनाभिप्रेतः नार्थमात्रम् । तेन संनिकर्षः = प्रत्यासत्तेरिन्द्रियस्य प्राप्तिः । तस्य च व्यवहितार्थानुपलब्ध्या सद्भावः सूत्रकृता प्रतिपादितः। तत्सद्भावे च सिद्धे पारिशेष्यात् तत्संयोगादिकल्पना।
परिशेषश्चेन्द्रियेण सार्धं द्रव्यस्य 'संयोग एव युतसिद्धत्वात् । गुणादिनां द्रव्यसमवेतानां संयुक्तसमवाय एव अद्रव्यत्वे सति अत्र समवायात्। तत्समवेतेषु संयुक्तसमवेतसमवाय एव अन्यस्याऽसम्भवात् प्राप्तेश्च प्रसाधितत्वात् । शब्दे 'समवाय एव आकाशस्य श्रोत्रत्वेन व्यवस्थापितत्वात् शब्दस्य च गुणभावात् गुणत्वेन 5 वैशेषिकसम्प्रदाय के ग्रन्थों में कहा गया है वह यहाँ भी सर्वत्र समझ लेना।
पूर्वपक्षी :- ऐसे तो रूपादि के विशेष लक्षणों का भी यहाँ सूचन करने की जरूर नहीं थी, वैशेषिकग्रन्थों में से ही उन को समझ लेंगे।
उत्तरपक्षी :- नहीं, रूपादि का यहाँ लक्षण यह दिखाने के लिये कहा है कि उन में अन्य किसी को विवाद नहीं है। बहुत से दार्शनिकों ने रूपादि को ‘विषय' के रूप में निर्विवाद स्वीकार किया 10 है अत एव उन पाँच के लक्षण यहाँ सूचित किये हैं। इन पाँच को विषय इस लिये कहा है कि आत्मा को वे अत्यन्त मूढ बनाते हैं, आत्मा के लिये ये अत्यन्त आसक्ति के निमित्त हैं। (इतना प्रासंगिक कथन है।) प्रस्तुत में उपयोगी बात इतनी ही है कि 'तदर्थाः' इस में अर्थशब्द से सिर्फ इन्द्रियविषयभूत अर्थ ही विवक्षित है न कि समस्त अर्थगण ।
[संनिकर्ष के छः प्रकार ] इन्द्रियविषय के साथ संनिकर्ष (जिस का सूत्रोक्त लक्षण में समावेश है,) का मतलब है प्रत्यासत्ति (नैकट्य) से इन्द्रिय की प्राप्ति (संयोग अथवा समवायादि सम्बन्ध)। 'व्यवहित (अन्तरित) अर्थ की प्रत्यक्षता नहीं होती' इस तथ्य के बल पर न्यायसूत्रकार ने संनिकर्ष के अस्तित्व को सूचित किया है और वह सिद्ध भी है किन्तु वह संनिकर्ष किस प्रकार का है यह यद्यपि नहीं कहा किन्तु तादात्म्यादि के न घटने पर परिशेषरूप से संयोगादि छ प्रकार संनिकर्ष के सिद्ध होते हैं। परिशेषरूप से सिद्ध 20 होने वाले वे निम्नोक्त प्रकार हैं - (१) न्यायमत में इन्द्रिय द्रव्यात्मक है और पृथ्वी आदि द्रव्य के साथ उन का 'संयोग' ही संनिकर्ष
बनेगा क्योंकि जो युतसिद्ध यानी पृथक् पृथक् द्रव्य होते हैं उन में संयोग सम्बन्ध सुघटित है। (२) द्रव्य में गुण का समवाय सम्बन्ध होता है और द्रव्य (विषय) इन्द्रिय से संयुक्त होता है इस
लिये इन्द्रिय का गुणों के साथ संयुक्त समवाय' संनिकर्ष बनेगा। हालाँकि अवयव द्रव्य में अवयवी 25 __द्रव्य का भी समवाय होता है किन्तु उस के साथ संयोग के बदले संयुक्त समवाय संनिकर्ष
मानने में गौरवादि दोष है अतः जो द्रव्यात्मक न हो उस का यानी गुण (क्रिया-जाति) का
द्रव्य में जो समवाय है उसी की यहाँ विवक्षा है। (३) गुणों में सत्तादि जातियों का समवाय होता है और इन्द्रियसंयुक्त द्रव्य में गुण समवेत होते हैं
अतः इन्द्रियों का गुणनिष्ठ जातियों के साथ 'संयुक्त समवेत समवाय' संनिकर्ष बनेगा। यह मानना 30 ही पडेगा, क्योंकि अन्य कोई सम्बन्ध जमता नहीं है और गुणनिष्ठ जातियों के प्रत्यक्ष होने से कोई न कोई संनिकर्ष मानना अनिवार्य है।
___15
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org