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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ यदप्यविकल्पकस्याभ्यासादिसहायविकल्पजनने प्रघट्टकाऽस्मरणं दृष्टान्तत्वेनोपन्यस्तम् (पृ.१७२-पं०२) तदप्ययुक्तम् । यतो वर्णादीनां तज्ज्ञानानां च व्यक्तिभेदाद् दृढसंस्काराण्येव निश्चयात्मकान्यपि ज्ञानानि स्मृतिजनकानि नापराणीति प्रतिनियतविषयस्मृतिसम्भवाद् न सकलप्रघट्टकाऽस्मरणदोषः, अनिश्चयात्मकं
तु ज्ञानं क्षणिकत्वादाविव न क्वचिद् विकल्पहेतुर्भवेद् इत्युक्तं प्राक् । न च भवत्पक्षे सच्चेतनादि-स्वर्ग5 प्रापणशक्त्यादीनां परस्परं तदनुभवानां च भेद: येनेदमुत्तरं समानं भवेत् । तथाहि-सच्चेतनादि-तत्सामर्थ्ययोरभेदे
तदनुभवादेकरूपादुभयत्र संस्कारः स्मरणं वा भवेत् न वा क्वचिदिति, अन्यथा अनुभवस्य सांशतापत्तिरिति सविकल्पकत्वं भवेत्। तस्माद् दानचित्तादौ सच्चेतनत्वादिकमनुभूयते न स्वर्गप्रापणसामर्थ्यमित्यभ्युपगन्तव्यम् । मानते ही चलिये और अनवस्था दोष को अवकाश देते रहिये... क्योंकि युक्ति के विना अनुभवबाह्य का स्वीकार आप को मंजूर है।
[ एक प्रघट्टक के अस्मरण का दृष्टान्त अनुपयुक्त ] यह जो आपने कहा है – सामर्थ्य के विषय में अभ्यासादि सहायक न होने से उस के विषय में निर्विकल्प निश्चय को उत्पन्न नहीं करता, चित्त के विषय में निर्विकल्प निश्चय को उत्पन्न करता है क्योंकि वहाँ अभ्यासादि सहायक है। - ऐसा कह कर आपने पूरे प्रघट्टक (एक वाक्यसमुदाय) के
अस्मरण का दृष्टान्त दिया था। (पृ.१७२-पं०१८) वह भी अयुक्त (= असंगत) है। कारण, वर्ण-पद 15 आदि प्रत्येक व्यक्ति और उन के ज्ञान व्यक्ति भी भिन्न भिन्न होते हैं। अत एव उन समस्त व्यक्ति
का स्मरण तभी हो सकता है जब प्रत्येक व्यक्ति का निश्चय निश्चयात्मक होने पर भी दृढ रूप से संस्कार उत्पन्न कर सके इतने सशक्त हो। यदि उन निश्चयों में कुछ निश्चय ऐसे होंगे जिन से शिथिलतम-शिथिलतर संस्कार उत्पन्न हुए होंगे - या संस्कार उत्पन्न ही नहीं हुआ होगा - ऐसे निश्चयों
के द्वारा कुछ वर्ण-पद आदि की स्मृति का उत्पन्न न होना न्याययुक्त है। उस में कोई दोष नहीं है। 20 जब कि आप के मत में तो क्षणिकत्वादि ग्राही एवं चित्तग्राही अनिश्चयात्मक निर्विकल्प एक ही है,
अत एव यदि उस से क्षणिकत्व (या सामर्थ्य) के विषय में निश्चय (सविकल्प) उत्पन्न नहीं होता तो फिर चित्तादि के विषय में भी विकल्प की उत्पत्ति का सम्भव नहीं रहता। पहले भी यह बात हो गयी है। मतलब, आप के पक्ष में सत् चेतना आदि और स्वर्गप्रापकसामर्थ्य आदि ये सब एक
ही निर्विकल्प के एकस्वभावात्मक स्वरूप है, अभिन्न हैं, भिन्न भिन्न नहीं है। तो उन का अनुभव करने 25 वाले निर्विकल्प प्रत्यक्ष के साथ एक प्रघट्टक से सभी वर्णादि के अस्मरण की तुलना कैसे हो सकती
है ?। आप ही सोचिये - निर्विकल्प प्रत्यक्ष से गृहीत सच्चेतनादि एवं सामर्थ्य यदि अभिन्न हैं तब उन के एकात्मक अनुभव (निर्विकल्प प्रत्यक्ष) से उन दोनों के संस्कार एवं स्मरण तुल्यरूप से होने चाहिये या तो उन में से एक का भी संस्कार या स्मरण नहीं होना चाहिये। यदि एक का मानेंगे
- दूसरे का नहीं मानेंगे तो अनुभव में उत्पादकत्व-अनुत्पादकत्व दो अंश प्रसक्त होने से सांशता 30 की विपदा होगी। अत एव वह निर्विकल्पस्वरूप न रह कर सविकल्परूप बन बैठेगा। परिणामस्वरूप, ___ यही मानना पडेगा कि निर्विकल्प दान चित्तादि प्रत्यक्ष से सिर्फ सच्चेतनादि का ही अनुभव होता
है न कि स्वर्गप्रापणशक्ति का।
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