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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ शाबर-पृष्ठ ४ पं. १५) अनेन द्रव्यादीनामिष्टार्थसाधनयोग्यता धर्म इति प्रतिपादितं - शबरस्वामिना। भट्टोप्येतदेवाह- (श्लो.वा.सू.२ श्लो.१९१ - १३ उ.-१४)
श्रेयो हि पुरुषप्रीतिः सा द्रव्यगुणकर्मभिः। चोदनालक्षणैः साध्या तस्मादेष्वेव धर्मता।। *एषामैन्द्रियकत्वेऽपि न ताद्रूप्येण धर्मता।।। श्रेयासाधनता ह्येषां नित्यं वेदात् प्रतीयते। ताद्रूप्येण च धर्मत्वं तस्मान्नेन्द्रियगोचरः।। इति
एवमनेकधा विवाददर्शनाद् न विवादाभावः ! स च स्वर्गप्रापणसामर्थ्यस्य दानचित्तादभेदे वस्तुस्वरूपग्राहिणा च स्वसंवेदनाध्यक्षेणानुभवे सद्व्यचेतनत्वादाविव न युक्तः।
अथ तच्चित्तादभिन्नं तत्प्रापणसामर्थ्यं तद्ग्रहे गृहीतमेव किन्तु स्वसंवेदनस्य “सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षमविकल्पम्” ( ) इति वचनाद् अविकल्पाध्यक्षत्वमिति तद्गृहीस्याऽगृहीतकल्पत्वाद् विवादसम्भवस्तत्र । 10 आह च कीर्तिः ‘पश्यन्नपि न पश्यति' (द्र.द्वि.खंडे १७६-४) इत्युच्यते- असदेतत्, यतो यदि तत्सामर्थ्य इष्टार्थसाधनयोग्यता है वही धर्म है।
कुमारील भट्ट श्लोकवार्त्तिक में कहता है - पुरुष (मनुष्य) को प्रीति का (आह्लाद का) उद्भव यही श्रेयस् है, चोदनास्वरूप (अर्थात् वेदबोधित) द्रव्य-गुण-कर्म से वह सिद्ध होती है, अत एव उन
में ही धर्मता रहती है।।१९१ ।। वे इन्द्रियगोचर हैं, किन्तु इन्द्रियगोचरत्वेन रूपेण उन में धर्मता नहीं 15 होती । १३ उत्तरार्द्ध ।। - द्रव्यादि की श्रेयःसाधनता हरहमेश वेदों से ही बोधित होती हैं (अतः)
वेदबोधितरूप से ही (उन में) धर्मत्व रहता है, अत एव वह इन्द्रियगोचर नहीं होती ।।१४।।
___ उपरोक्त स्वरूप धर्म के स्वर्गदायक सामर्थ्य, उस की प्रत्यक्षता-परोक्षता आदि विषय में विवाद दृष्टिगोचर होने से विवादशून्यता नहीं है यह स्पष्ट होता है। यदि दानादिचित्त का स्वर्गदायकसामर्थ्य
दानादिचित्त से सर्वथा तादात्म्यापन्न है एवं वस्तुस्वरूपग्राहि स्वसंवेदिप्रत्यक्ष से दानादिचित्त अनुभवगोचर 20 है तो. जैसे चित्त के सत-द्रव्य-चैतन्य स्वरूप अनुभवगोचर होने से उस में कोई विवाद नहीं वैसे
दानादिचित्तस्वरूप स्वर्गदायकसामर्थ्य भी अनुभवगोचर बन जाने से उस के बारे में किसी (उपरोक्त) विवाद को अवकाश ही नहीं रहेगा।
[स्वर्गादिदायकसामर्थ्य का निर्विकल्प ] यदि कहा जाय – “दानादिचित्त से स्वर्गादिदायकसामर्थ्य अभिन्न ही है, अत एव दानादिचित्त 25 के ग्रहण में उस का ग्रहण समाविष्ट ही है। 'तब उस के लिये विवाद क्यों' - इस प्रश्न का उत्तर
यह है कि “चेतस् एवं चैतसिक धर्मों का स्वसंवेदन निर्विकल्प प्रत्यक्ष होता है" इस सांप्रदायिक अभिप्राय के अनुसार दानादिचित्त का संवेदन भी निर्विकल्प प्रत्यक्षरूप ही होता है जो कि गृहीत रहने पर भी निर्विकल्पता के कारण अगृहीत जैसा ही रहता है - यही कारण है विवाद के उत्थान का। धर्मकीर्ति ने कहा है - 'देखता हुआ भी नहीं देखता।' मतलब, निर्विकल्प प्रत्यक्ष वस्तु को देखने पर भी 4. तत्वसंग्रह-पञ्जिकायाम्। अपि च शास्त्रदीपिकायां (१-१-२), श्लो. वा. पार्थ. व्याख्यायां च निरूपितम्- “यद्यपि गोदोहनादिद्रव्यम् यागादिक्रिया नीचैस्त्वादिगुणश्च फलसाधनत्वाद् धर्मशब्देनोच्यते नाऽपूर्वादय इति श्रेयस्करभाष्ये वक्ष्यते, तथापि तेषां फलसाधनरूपेण धर्मत्वात् फलस्य च जन्मान्तरादिभावित्वाद धर्मस्वरूपेण प्रत्यक्षविषयत्वं न संभवति ।" *. पूर्वार्धमस्यैवम् 'द्रव्य-क्रिया-गुणादीनां धर्मत्वं व्यवस्थाप्यते ।
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