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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ बोधस्यैव प्रमितिं प्रति तादात्म्यादव्यवहितं साधकतमत्वम् चक्षुरादेस्तु बोधव्यवधानाद् गौणम्। न च व्यपदेशमात्रात् पारमार्थिकवस्तुव्यवस्था, उपचारतोऽपि ‘नड्वलोदकं पादरोगः' इत्यादिव्यपदेशप्रवृत्तेः ।
न च प्रमाणस्य प्रमितिरूपता विरुद्धा, स्वरूपे विरोधाऽसिद्धेः। न च प्रमाण-प्रमित्योरेकान्ततोऽभेद एवाभ्युपगम्यते, कथंचिद् बोधादर्थपरिच्छित्तिविशेषस्य भेदात् प्राक्तनपर्यायनिरोधेन कथंचिदवस्थितस्यैय बोधस्यार्थपरिच्छित्तिविशेषरूपतयोत्पत्तेः, अन्यथा कार्यकारणभावविरोधात् इत्यसकृत् प्रतिपादितत्वात् । एतेन ‘लिखितं साक्षिणो भुक्तिः प्रमाणं त्रिविधं स्मृतम्।' [याश्य. स्मृ. २-२२] इति यत् शास्त्रान्तरेषु बोधाबोधरूपस्य प्रमाणत्वाभिधानम् (पृ०४-५.५) तदप्युपचारेण व्याख्येयमित्युक्तं भवति, अन्यथा प्रमाणविरोधः प्रदर्शितन्यायेन । यदपि 'तत्कार्यभूता वा उदितविशेषणोपलब्धिस्तस्य सामान्यलक्षणम्' (पृ०५३-पं०८) इत्युक्तम् तदप्यसङ्गतम्;
लोकव्यवहार होता है। प्रमितिक्रिया के प्रति मुख्यरूप से बोध स्वयं ही साधकतम है न कि चक्षु-धूमादि, 10 क्योंकि चक्षुआदि का प्रमिति के साथ तादात्म्य न होने से वे प्रमिति से दूरवर्ती हैं इसलिये साधकतम
नहीं हो सकते, साधकतम वही हो सकता है जो कार्य (प्रमिति) से निकटतम हो, वैसा बोध स्वयं ही है। क्योंकि प्रमिति के साथ उस का तादात्म्य होने से वह व्यवधानरहित है। चक्षुआदि गौण करण हैं क्योंकि वे दूरवर्ती हैं। लोक में होने वाले व्यवहारमात्र से वस्तुसत्य की प्रतिष्ठा नहीं की जा सकती,
लोकव्यवहार तो गौणरूप से यानी औपचारिकरूप से भी होता है जैसे कि गोष्पद के पानी को उपचार 15 से ‘पाँव की बिमारी' ही कहा जाता है, वास्तव में वह स्वयं बिमारी नहीं किन्तु बिमारी की जननी है।
* प्रमाण और प्रमिति का कथंचिद् भेदाभेद * प्रमाण और प्रमिति में अभेद के स्वीकार में कोई विरोध-सम्भव नहीं है, प्रमिति यह प्रमाण (बोध) का ही एक विशिष्ट स्वरूप है, किसी भी व्यक्ति का अपने स्वरूप के साथ कोई विरोध नहीं
होता। शंका :- प्रमाण-प्रमिति में अभेद मानने पर हेतु-फलभाव आदि का लोप हो जायेगा। समाधान :20 लोप नहीं होगा, क्योंकि हम एकान्त आग्रह रख कर प्रमाण-प्रमिति का सर्वथा आत्यन्तिक अभेद नहीं
मानते हैं, कथंचिद् भेद भी मानते हैं, पूर्वकालीन हेतुस्वरूप जो प्रमाणात्मक बोध है वही उत्तरकाल में विशिष्ट प्रमित्यात्मक बोध में फलरूप से परिणत हो जाता है, इस प्रकार पूर्वकालीन हेतुरूप बोध
और उत्तरकालीन फलात्मक प्रमिति में कथंचिद् भेद भी अक्षुण्ण है। तात्पर्य, पूर्वकालीन बोध में जो
अविशिष्टपर्याय था, वह बोधरूप में तदवस्थ रहते हुए भी अविशिष्ट रूप से निरुद्ध हो कर 25 विशिष्टअर्थावबोधात्मक पर्यायरूप से उत्पन्न होता है। इस प्रकार से नहीं मानेंगे और एकान्त भेद
ही मानेंगे तो प्रमाण-प्रमिति में कारण-कार्यभाव, विरोध के कारण नहीं माना जा सकेगा – कई बार इस तथ्य का प्रतिपादन पहले किया जा चुका है।
* प्रमाण अबोधस्वरूप नहीं होता * प्रमाण बोधात्मक ही हो सकता है ऐसा सिद्ध हो जाने से, अन्य अन्य शास्त्रों में बोध-अबोध 30 उभयसाधारण रूप से प्रमाण की जो यह व्याख्या कही गई है (पृ.४-५०२७) कि - लिखे हुए दस्तावेज,
साक्षिपुरुष एवं उपभोग स्वरूप वस्तु पर कब्जा ये तीनों ही प्रमाण हैं - यह व्याख्या निरस्त हो जाती है क्योंकि प्रमाण अबोधस्वरूप नहीं हो सकता। हाँ - इस व्याख्या से लिखित आदि को उपचार से ही प्रमाण मान सकते हैं, मुख्यरूप से मानने जायेंगे तो पूर्वोक्त युक्तियों के मुताबिक अबोधात्मकता
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