Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य तेरापंथी - इन चारों संप्रदायों में संमूर्छिम मनुष्य की यतना से संलग्न परंपरा है। तथा वे सभी परंपराएँ ऐसा स्वीकार करती है कि अपनी कायिक प्रवृत्ति से संमूर्छिम मनुष्य की विराधना होती है । अत एव उन विराधनाओं से बचने के लिए विभिन्न प्रकार की रीतियाँ एवं सामाचारियाँ उन संप्रदायों द्वारा उपदिष्ट हैं। अत एव शरीर के बाहर निकले हुए रक्तादि में ही संमूर्छिम की उत्पत्ति मानने की परंपरा है। तत् तत् मान्यताभेद एवं आचरणाभेद के कारण ये चारों संप्रदाय कितनी शताब्दियों से अत्यंत दूर हो चुके हैं तथापि उन सभी संप्रदायों में चल रही परंपरा क्या अमुक दशकों पहले की ही हो सकती है? शायद कभी एकाध संप्रदाय में - गच्छ में कोई नई परंपरा का प्रारंभ हो वैसा बन सकता है। परंतु चारों संप्रदाय में 'संमूर्छिम मनुष्य की विराधना से बचते रहना' - इस विषय में एकवाक्यता दिखती हो तब मानना ही रहा की इस सुविहित परंपरा के मूल बहुत गहरे हैं, प्रभुवीर के चरणों में हैं । ऐसी परंपरा को अपने थोड़े-बहुत अभ्यास के आधार पर ललकारना कदापि उचित नहीं - ऐसा हमारा नम्र मंतव्य है। • चारों संप्रदायों की प्रस्तुत परंपरा में सम्मति
स्थानकवासी संप्रदाय के युवाचार्य श्रीमधुकरमुनि की रहनुमाई तले हुए निशीथसूत्र के अनुवाद में श्रीकनैयालालजी महाराज ने लिखा है कि “यह भी ध्यान रखना चाहिए कि परठने के स्थान पर सूर्य की धूप आती है या नहीं, धूप न आती हो तो जल्दी नहीं सूखने से सम्मूर्छिम जीवों की उत्पत्ति हो कर ज़्यादा समय तक विराधना होती रहती है।” (नि. अनुवाद - उ.३, सू.८०, श्री आगम प्रकाशन समिति ब्यावर से प्रकाशित)
यहाँ संमूर्छिम मनुष्यों की विराधना का इतना सहजतया उल्लेख