Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य (गा.२४-२५वृत्ति)
यहाँ भी स्पष्टतया संमूर्छिम मनुष्य की विराधना से बचने के लिए श्लेष्मादि को धूल आदि से मिलाने की बात की है। साथ में संमूर्छिम मनुष्य की विराधना को ‘महाविराधना' स्वरूप बताई है। असंख्य पंचेन्द्रिय मनुष्यों की विराधना छोटी तो नहीं कही जाती ! सचमुच यह दुर्भाग्य की बात है कि संमूर्छिम मनुष्य को अविराध्य मानने की विपरीत बुद्धि रामलालजी को हुई...।
इसके अलावा अन्य अनेक आगमसंदर्भ एवं अनेक प्रमाणप्राप्त सेन प्रश्न (४/९७) वगैरह प्रकरणग्रंथ के संदर्भ पेश किए जा सकते हैं कि जो संमूर्छिम मनुष्य की कायिक विराधना की संभावना का प्रतिपादन करते हैं। इन सभी प्रमाणों की तटस्थ समालोचना से कोई भी आगममनीषी समझ जाएगा कि - "संमूर्छिम मनुष्य की कायिक विराधना कदापि संभव नहीं है" - ऐसा ऐकांतिक कथन सचमुच आगमिक और शाश्वत सत्य से लाखों योजन दूर है । तथा 'कदापि' जैसे शब्दों से अभिव्यक्त हुए आग्रह के कारण यथाच्छंद-स्वच्छंद प्ररूपणा की कोटि में निविष्ट हो सकता है । उपर्युक्त विचार-विमर्श से आगमिक सत्य तो यही साबित होता है कि - ‘संमूर्छिम मनुष्यों की कायिक विराधना संभवित है।' * संमूर्छिम मनुष्य की विराधना में प्रायश्चित्त का उपदेश
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C क्रमांक विचारबिंदु में श्रीरामलालजी महाराज संमूर्छिम मनुष्य की विराधना संबंधी किसी भी प्रकार का प्रायश्चित्त का न होना बता कर यूँ सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं कि 'संमूर्छिम मनुष्य की विराधना जैसा कुछ होता ही नहीं।' इस विषय में भी ऊहोपाह कर लें।
प्रायश्चित्तप्रतिपादक छेदसूत्र हैं और सत्य हकीक़त तो यह है कि छेदग्रंथों में संमूर्छिम मनुष्य की विराधना के प्रायश्चित्त बताए ही हैं। अमुक दृष्टांत देख लें।