Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य
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शरीर के बाहर। श्री व्यवहार सूत्र उद्देशक 9 में मोक प्रतिमाओं प्रायश्चित्त का वर्णन ज्ञात नहीं होता है। सम्मच्छिम मनुष्यों की (विशेष प्रकार का तप) का वर्णन किया गया है, जिनमें बताया कायिक विराधना को जब-से (कुछेक दशकों से) माना जाने है कि 'मोकप्रतिमाधारी मुनि सात-आठ दिनों तक स्वयं के लगा है, तब से बाद के सामाचारी सम्बन्धी फुटकर पत्रों में ही मोक का पान करता है।' (1) यदि सम्मच्छिम मनष्यों की इसके प्रायश्चित्त सम्बन्धी कछ उल्लेख प्राप्त होते हैं। कायिक विराधना संभव होती तो तीर्थंकर भगवान कभी आगम, प्राचीन भाष्य चूर्णि, टीकादि में सम्मूछिम मनुष्य मोकपान का विधान नहीं करते। उपर्युक्त वर्णन के अतिरिक्त भी के प्रायश्चित्त संबंधी कोई वर्णन नहीं मिलता है। आगमादि के विभिन्न ग्रन्थों में इस प्रकार के अनेक वर्णन प्राप्त है जिनसे स्पष्ट उन विस्तृत प्रायश्चित्त सूत्रों का उल्लेख न करते हुए इतना कहना है कि 'सम्पूछिम मनुष्यों की कायिक विराधना कदापि प्रासंगिक है कि श्री निशीथ सूत्र आदि के ज्ञाता मुनिराज इस संभव नहीं है।'
तथ्य का भली-भाँति अनुभव करते हैं कि उन सूत्रों में [C] तीर्थंकर देवों की निर्ग्रन्थ परम्परा में आलोचना, पृथ्वीकाय आदि की हिंसा के विभिन्न प्रकारों एवं प्रायश्चित्तों प्रायश्चित्त का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रायश्चित्त से दोषों का उल्लेख है, लेकिन सम्मूछिम मनुष्यों की विराधना का की विशुद्धि होती है। विभिन्न दोषों के लिए शास्त्रों एवं अन्य प्रायश्चित्त पाठ कहीं उल्लिखित नहीं है, जब कि उच्चारग्रन्थों में प्रायश्चित्त का विस्तृत उल्लेख प्राप्त है। उनमें पृथ्वीकाय, प्रस्रवण आदि का परिष्ठापन मुनि की दिनचर्या से जुड़ा एक अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, आवश्यक अंग है। यह भी इस तथ्य का प्रबल संसूचक है कि त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पशु आदि की हिंसा संबंधी 'सामूछिम मनुष्यों की कायिक विराधना संभव नहीं हैं।' प्रायश्चित्तों का उल्लेख है, किन्तु सम्मच्छिम मनुष्य की हिंसा के उपर्युक्त सविस्तर विवेचन के अनुसार आगमों के आधार
(15) धोतम्मि य निप्पगले, बंधा तिण्णेव होंति उक्कोसा। परिगलमाणे जयणा, दुविहम्मि य होति कायव्वा ।।6167 ॥
पढम चिय वणो हत्थसयस्स बाहिरतो धोविउंणिप्पगलो कतो ततो परिगलते तिण्णि बंधा उक्कोसेण करेंतो वाएति। दुविहं व्रणसंभव उउयं च, दुविहे वि एवं पट्टगजयणा कायव्वा ॥ 6167॥ समणो उवणे व भगंदले व बंधेकका उवाएति। तह वि गलते छार, दाउंदो तिष्णि वा बंधे।।6168 । व्रणे धोयणिप्पगले हत्थसयबाहिरतो पट्टग दाउं वाएइ, परिगलमाणेण भिण्णे तम्मि पट्टगे तस्सेव उवरि छारं दाउँ, पुणो पट्टगं देति वातेति य, एवं ततियं पि पट्टगं बंधेज्जा वायणं च देज्ज, ततो परं परिगलमाणे हत्थसयबाहिर गंतुं व्रणपट्टगे य धोविउं पुणो एतेणेव क्रमेण वाएति । अहवाअण्णत्थ गंतु पढति ।। 6168 ॥ एमेव य समणीणं, वणम्मि इतरम्मि सत्तबंधा उ। तह वि य अठायमाणे, धोऊणं अहव अण्णत्थ। 6169॥ यति उडुअंएवं चेव, णवरं-मत्तबंधा उक्कोसेण कायव्वा, तह वि अटुंते हत्थसपबाहिरतो धोविउं पुणो वाएति, अहवा-अण्णत्थ पद्धति'
निशीथ चूर्णि, भाष्यगाथा 6167-8769, संपादक-उपाध्याय अमर मुनि जी व मुनि कन्हैयालाल जो (16) 'दो पडिमाओ पण्णताओ, तं जहा-1. खुड़िया वा मोयपडिमा, 2, महल्लिया वा मोयपडिमा। खड़ियं णं मोयपडिमं पडिक्त्रस्म अणगारस्स कप्पइ पढमनिदाहकालसमयसि वा चरिमनिदाहकालसमर्थसि वा, बहिया गामस्स वा जाव रायहाणीए वा वर्णसि वा वणविदुग्गसि वा, पव्वयसि वा पव्वयविदुग्गसि वा भोच्चा आरुभइ चोदसमेणं पारेइ, अभोच्चा आरुभइ, सोलसमेणं पारेइ। जाए जाए मोए आगच्छइ, ताए-ताए आईयव्वे। दिया आगच्छइ आईयव्वे, रतिं आगच्छइ नो आईयवे। सपाणे मत्ते आगच्छइ नो आईयचे, अप्पाणे मत्ते आगच्छइ आईयव्वे। सबीए मत्ते आगच्छइ नो आईयव्वे, अबीए मत्ते आगच्छद आईयत्वे । ससणि मत्ते आगच्छड नो आईयव्वे, अससणिढ़े मते आगच्छइ आईयव्वे।ससरक्खे मते आगच्छइ नो आईयव्वे, अससरक्खे मत्ते आगच्छइ आईयव्वे। जावइए जावइए मोए आगच्छइ तावइए तावइए सव्वे आईयव्वे, तं जहा-अप्पे वा, बहुए वा। एवं खलु एसा खुड्डिया मोयपडिमा अहासुत्तं जाव आणाए अणुपालित्ता भवइ ।।41 महल्लियं णं मोयपडिम पडिवनस्स अणगारस्स कप्पइ पढमनिदाहकालसमयंसि वा, चरमनिदाहकालसमयसि वा, बहिया गामस्स वा जाव रायहाणीए वा वर्णसि वा वणदुग्गसि वा पव्वयंसि वा पव्वयदुग्गसि वा, भोच्चा आरुभइ, सोलसमेणं पारेइ, अभोच्चा आरुभइ, अद्वारसमेणं ।। पारेइ। जाए जाए मोए आगच्छइ, ताए जाए आईयव्वे। दिया आगच्छद आईयव्वे, रतिं आगच्छद नो आईयचे, जाव एवं खलु एसा महलिया मोयपडिमा अहासुत्तं जाव आणाए अणुपालित्ता भवइ ।। 42 ॥
-श्री व्यवहार सूत्र, उद्देशक 9, सूत्र 41-42, (संपादक- आ. मुनिचन्द्र सूरि जी) ।
२२. मोकआचमन तुरंत करना होता है । जीवोत्पत्ति कालांतर में होती है। (पृ. ९६) २३. छेदसूत्र में निर्दिष्ट संमूर्छिम मनुष्य की विराधनाप्रत्ययिक प्रायश्चित्त के लिए देखिए पृ. ९९ से १०३ ।
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