Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्च्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य प्राचीन प्रामाणिक परंपरा का अपलाप न करें
वर्तमान में जब अपने पास श्रुत अल्प हो, जो श्रुत है उसका पर्याप्त और सर्वांगीण बोध न हो, वैसा विशिष्ट गुरुआम्नाय न हो तब हमें मिले हुए दो-चार संदर्भों के बल पर अपनी मतिअनुसार उसके किए गए अर्थघटन के आधार पर किसी प्राचीन, प्रामाणिक, अविच्छिन्न रूप से चली आ रही परंपरा के मूल में ही अपना कल्पनारूपी हथौड़ा मारना तो महापातकरूप साबित हो सकता है ।
वह भी ऐसी परंपरा कि जिसके मूल में किया हुआ प्रहार अंतत: तो असंख्य संमूर्च्छिम पंचेन्द्रिय मनुष्यों की स्मशानयात्रा निकालने में निमित्त बनने वाला हो । वैसा कृत्य तो अति कनिष्ठतम कक्षा को प्राप्त होता है।
अनेक प्राचीन पुरुषों द्वारा प्रमाणित की गई परंपरा स्वयं एक सिद्धांत है - इस बात को भूलनी नहीं चाहिए । परमात्मा ने इसीलिए जीताचार-जीतव्यवहार आदि को, आगमव्यवहार वगैरह के साथ तुल्यवत् बलवान = तुल्यनिर्जराकारक बताए हैं। संमूर्च्छिम मनुष्य की प्रमाणित परंपरा को तो हम देख चुके उस प्रकार अनेक आगमिक सबूतों का प्रबल समर्थन है । अतः उसका अतिक्रमण अंततः तो आगम की आशातना में रूपांतरित होगा ।
उपसंहार
अतः सर्व आगममनीषिओं को या आधुनिक अनुसंधाताओं को हमारी करबद्ध प्रार्थना है कि - वर्तमान श्रुत की अल्पता अपूर्णता को देखते हुए उन्हें अपने आगमिक संशोधन को एक लक्ष्मणरेखा द्वारा नियंत्रित करना चाहिए । अमुक-तमुक विषयक स्पष्ट आगमिक शब्द न दिखने
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