Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 137
________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य यदि यह कहा जाए कि शरीर के भीतर रहे सम्मूछिम (A-3.) इसके साथ ही शरीर के भीतर रहे मल में कृमि 7 मनुष्यों का संघट्टा अशक्य परिहार है अर्थात् उस संघट्टे का रूप द्वीन्द्रिय आदि जीवों की उत्पत्ति प्रत्यक्ष अनुभव की जाती निवारण शक्य नहीं है, लेकिन शरीर से बाहर निकलने के बाद है। चूंकि आगम में उच्चार (मल) को सम्मूच्छिम मनुष्यों की संघटे मे विराधना क्यों नहीं मानी जाये? तो ऐसा कथन भी उत्पत्ति योग्य योनि कहा गया है, तो शरीर में रहे उच्चार में भी आगम संगत नहीं है। द्वीन्द्रियादि जीवों की तरह सम्मूच्छिम मनुष्य भी उत्पन्न हो (B-1) इस सन्दर्भ में मुनि की रात्रि एवं विकाल सकते हैं, ऐसा सिद्ध होता है। सम्बन्धी उच्चार-प्रस्रवण परिष्ठापन विधि को भी समझने का ___ (A-4) शरीर के भीतर रहे मलादि में सम्मच्छिम मनुष्यों यत्न करें । सामान्यतः मुनि उच्चार भूमि सम्पन्न स्थान में रुकते की उत्पत्ति सनिश्चित होने का एक और महत्वपूर्ण कारण यह हैं। सूर्यास्त के पूर्व उच्चार प्रस्रवण भूमि का प्रतिलेखन करते भी है कि उपर्युक्त आगमपाठ में आगमकारों ने स्त्री-पुरुष हैं एवं रात्रि या विकाल में बाधा होने पर उस भूमि पर जाकर संयोग में भी सम्मूछिम मनुष्यों की उत्पत्ति मानी है। स्त्री- वहीं उच्चार-प्रस्रवण का विसर्जन करते हैं। कदाचित् बाहर • जाकर मल मूत्र विसर्जन की स्थिति न हो तो मुनि उच्चार पुरुष संयोग मनुष्य स्त्री के शरीर के भीतर होता है एवं वहाँ प्रस्रवण के विसर्जन हेत निर्धारित भाजन (पात्र) में विसर्जन सम्मूछिम मनुष्यों की उत्पत्ति स्पष्ट रूप से मानी गई है। इसी , | करके सूर्योदय के पश्चात् उसे परठते हैं। यहाँ आगम का यह तरह शरीर के भीतर रहे मलादि में सम्मूच्छिम मनुष्यों की आशय समझने योग्य है कि यदि मल-मत्रादि के विसर्जन के उत्पत्ति हो सकती है। इससे सुनिश्चित होता है कि मनुष्य के एक मुहर्त बाद तत्संबंधी भाजन का स्पर्श आदि क्रियाएं शरीर में रहे मलादि में सम्मूछिम मनुष्यों की उत्पत्ति संभव है। आगमों में कहीं ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जो शरीर के ८. शरीर के भीतर रहे मलादि को संमूर्छिम | मनुष्य के उत्पत्तिस्थान के रूप में बताए ही भीतर रहे मलादि में सम्मूट्रिम मनुष्यों की उत्पत्ति का निषेध नहीं। बाहर रही अशुचि में ही संमूर्च्छिम करता हो। अत: यह असंदिग्ध रूप से निर्णीत होता है कि शरीर मनुष्य की उत्पत्ति पन्नवणासूत्र द्वारा के भीतर रहे मलादि में भी सम्मूर्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति हो प्रतिपादित है। (पृ.१२ से ४०) सकती है। चूँकि शरीर के भीतर विद्यमान मलादि में सम्मूछिम स्त्री-पुंसंयोग = शुक्र-शोणितसंयोग । शुक्र तो शरीरनिर्गत होता ही है। शोणित भी मनुष्यों की उत्पत्ति संभव है। इसलिए शरीर से विसर्जन के मूलस्थान से च्युत होने के पश्चात् ही शुक्रतुरन्त बाद भी उत्पत्ति की प्रक्रिया गतिशील रह सकती है। अत: शोणितसंयोग होता है । इस विषय में विशेष विसर्जन के पश्चात् एक मुहूर्त तक सम्मूच्छिम मनुष्यों के शास्त्राधारित स्पष्टता के लिए देखिए पृ. उत्पन्न न होने की बात भी निराधार लगती है। ३४ से ३६। उपर्युक्त आगमिक तथ्य को आत्मसात् कर लेने के १०. विवृत योनि के तर्क से (पृ. १७ से २०), नन्तर हमारे लिए आगम का यह दृष्टिकोण भी समझना सरल ढाई द्वीप में ही जन्म-मरण की बात से हो जाता है कि सम्मृच्छिम मनुष्यों की विराधना हमारी काया से (पृ. २२-२५), अवस्थित संख्या वाले संभव नहीं है। जैसे शरीर के भीतर रहे सम्मूछिम मनुष्यों का विचार से (पृ. ३७-३८) तथा पूर्वोक्त संघट्टा (स्पर्श) विराधना रूप नहीं है, वैसे ही शरीर से बाहर अनेक प्रमाण से शरीर के बाहर संमूर्छिम निकलने के एक मुहूर्त बाद भी उच्चार-प्रस्रवण युक्त भाजन मनुष्य की उत्पत्ति सिद्ध । (पृ. ३७-४०) का संस्पर्श, उच्चार-प्रस्रवण का बाहर परिष्ठापन, उस भाजन | ११. संमूर्छिम मनुष्य आखिर बादर, त्रस, को पोंछकर सुखाना आदि क्रियाओं से भी सम्मूछिम मनुष्यों पंचेन्द्रिय जीव है। तो फिर उसकी हिंसा की विराधना संभव नहीं है। क्यों नहीं होगी ? (पृ. ४२-४३) १२३

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