Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य मात्र से उसे अर्वाचीन निर्णित कर के अपनी संशोधक के रूप में ख्याति की प्राप्ति के लिए या 'मेरे जैसा कोई संशोधक है ही नहीं' - ऐसा प्रस्थापित करने के लिए उत्सुक नहीं बनना चाहिए । परंतु आगमिक तथ्य और परंपरा को पुष्ट करे वैसे ही संशोधन में निरत रहना चाहिए ।
खंडन एवं निषेध से प्राप्त प्रसिद्धि सुलभ होने पर भी वह अल्पजीवी होती है। जब कि विधेयात्मक कार्य से प्रसिद्धि की प्राप्ति में विलंब होने पर भी वह चिरंजीवी होती है एवं प्रभु के शासन को लाभदायी साबित होती
जो बात चारों संप्रदायों में मान्य है, आगमों में जिसके स्पष्ट निर्देश मौजूद हैं, वैसी एक प्रामाणिक संमूर्छिम मनुष्य की परंपरा के लिए रामलालजी महाराज ने संशोधन करने के लिए मेहनत की ... परंतु मेरी उन्हें नम्र बिनती है - जिसका मूल आगम में स्पष्ट निर्देश है उस मूर्तिपूजा को एवं मुहपत्ति विषयक परंपरागत विधि को छोड़ कर नई परंपरा कब से शुरू हुई ? तद्विषयक यदि तटस्थ संशोधन करोगे तो जैन समाज की एकता का एक अद्भुत कार्य होगा, श्रद्धेय आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज जैसी घटना का शायद जैन इतिहास साक्षी बनेगा।
अंततः श्रीरामलालजी महाराज को भी क्षमाप्रार्थना पूर्वक विज्ञप्ति है कि आगमिक सत्य जब अत्यंत स्पष्टतया संमूर्छिम मनुष्य की कायिक विराधना का स्वीकार करता है, आपको भी इस लेख द्वारा भीतर से इस बात की प्रतीति हो चुकी होगी, तब आपके लेख से किसीके मन में भ्रमणा चिरंजीवी न बन जाए और अनवस्था का वारण हो तदर्थ सौहार्दपूर्ण एकाध जाहिर कदम अवश्य उठाना, जो आपकी आगमनिष्ठा और सत्यप्रियता को प्रमाणित करेगा ।
आगममाता की गोद में निश्चिंत हो कर क्रीडा करने का जो आनंद मिला उसका 'गुलाल' करने की यह बालचेष्टा मात्र है ।
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