Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य B व्यवहार सूत्र में प्रायश्चित्त का उल्लेख
मृतदेह को परठने में विलंब करने से स्पष्ट है कि संमूर्छिम जीवों की उत्पत्ति और उसकी विराधना का दोष लगेगा, क्योंकि पन्नवणासूत्रकार ने 'विगतजीवकलेवरेसु' (देखिए पृ.७) कह कर आत्मा के निकल जाने के मुहूर्त के पश्चात् (देखिए पृ.-१२) संमूर्छिम की उत्पत्ति मृतदेह में दर्शाई है । इस तथ्य को प्रमाणित करने वाली बात श्रीव्यवहारसूत्रभाष्य गा.३२८१ की वृत्ति में श्रीमलयगिरिसूरि महाराज ने इन शब्दों में बताई
है -
“ध्यामनम् अग्निकायेन यदि तस्य कलेवरस्य क्रियते तदा ध्यामननिष्पन्नमपि तस्य प्रायश्चित्तमापद्यते, यच्चान्यत् तदपि प्राप्नोति । किं तद् ? इति चेत् ? यावन्तः प्राणाः सम्मूर्च्छन्ति तावन्तो विराध्यन्ते, यावन्तश्चाऽऽगन्तुकाः प्राणविराधनामाप्नुवन्ति तत्सर्वम् अपरिष्ठापयन् प्राप्नोति । ...... यच्चान्यत् संमूर्छितागन्तुकप्राणजातिविराधनाजं तदपि..."
इस तरह संमूर्छिम मनुष्य की विराधना में प्रायश्चित्त की आपत्ति स्पष्टतया बताई है ।
बृहत्कल्पसूत्र में प्रायश्चित्त प्रदर्शन
यदि संमूर्छिम मनुष्य की कायिक विराधना असंभवित मानी जाए तो पड़े रहे आर्द्र उच्चारादि में उत्पन्न हुए संमूर्छिम मनुष्य भी विराध्य (= कायिक विराधना को पात्र) नहीं रहेंगे । जब कि शास्त्रकारों ने उच्चार के ऊपर उच्चारादि को परठने पर प्रायश्चित्त का विधान किया है । यह प्रायश्चित्त संमूर्छिम मनुष्य की विराधना से निष्पन्न होना सूचित होता है। वह प्रायश्चित्त संमूर्छिम मनुष्य की विराधनाप्रत्ययिक ही है - वैसा मानना रहा।
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