Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
View full book text
________________
संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य में समाविष्ट हो गए हैं।
इस तरह प्रमुख तीन छेदसूत्र की साक्षी यह बात निर्विवाद साबित करती है कि 'संमूर्छिम मनुष्य की विराधना का कोई प्रायश्चित्त नहीं दर्शाया गया' - ऐसी रामलालजी महाराज की बात आधारहीन और तथ्यविहीन है। छेदसूत्र में संमूर्छिम मनुष्य की विराधना से संलग्न प्रायश्चित्त का निर्देश साक्षात् या परोक्षतया अवश्य किया गया ही है - यह बात निश्चित होती है। यहाँ तो सिर्फ दृष्टांत के रूप में ही साक्षी दिए गए हैं। इसके अलावा अनेकत्र तत् तत् विराधना के अनुरूप प्रायश्चित्त दर्शाए ही हैं कि जो संमूर्छिम मनुष्य की कायिक विराधना की संभावना साबित करने वाले प्रबल गवाह स्वरूप हैं। * आगमिक संदर्भो से सिद्ध होने वाला तथ्य
靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈圖圖圖圖圖圖
इस तरह अनेक आगमिक संदर्भ-तर्क-दृष्टांत आदि के प्रताप से हम इतने विचारबीज आगमिक सत्य के रूप में तय कर सकते हैं कि - १. संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति गर्भज मनुष्य के शरीर से बाहर
निकलती हुई अशुचिओं में ही होती है, शरीर के भीतर नहीं। २. संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति शरीर से बाहर निकलती हुई अशुचि
में तुरंत नही, किंतु कालांतर में होती है। शास्त्र और परंपरा उस समयखंड का अंतर्मुहूर्त शब्द से व्यपदेश करते हैं। (देखिए पृ.
१२) ३. संमूर्छिम मनुष्य की कायिक विराधना संभवित है । ४. गर्भज मनुष्य की अशुचि अत्यंत सूख जाए या अन्य किसी में ___ एकमेक हो कर पर्यायांतर पा जाए तो योनि के विध्वस्त होने
से उसमें संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति रुक जाती है । ५. तरल, प्रवाही, अशुचि को व्यवस्थित हिलाने में आए तो भी संमूर्छिम मनुष्य की योनि विध्वस्त हो सकती है। उसमें संमूर्छिम
१०३