Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 116
________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य ___ छक्कायत्ति पुढवादी जाव तसक्काइया। चउसुत्ति एएसिं छण्हं जीवणिकायाणं चउसु पुढवादिवाउक्कायंतेसु संघट्टणे लहुगो, परितावणे गुरुगो, उद्दवणे चउलहुगा । परित्तवणस्सइकाए वि एवं चेव । साहारणवणस्सतिकाइए संघट्टणे मासगुरूं, परितावणे ड्क, उद्दवणे ड्का, संघट्टपरितावणेत्ति वयणा सुत्तत्थो (?तो) लहु-गुरुगा इति चउलहुं चउगुरुं च गहितं । सेसा पच्छिता अत्थतो दट्ठव्वा । पंचिंदियसंघट्टणे छगुरुगा । परितावइ छेओ, उद्दवेति मूलं । दोसु अणवट्ठी, तिसु पारंची। एस अक्खरत्थो । ___ ... एवं बेइंदिएसु चतुर्लहु आढत्तं छल्लह ठाति । तेइंदिएसु चतुर्गुरु आढत्तं छग्गुरुए ठाति । चउरिंदियाण छल्लहु छेदे ठाति । पंचेदियाण छग्गुरु आढत्तं मूले ठाति।" प्रस्तुत चूर्णि में हिंसा होने पर तत् तत् जीवों को आश्रय कर प्रायश्चित्त बताया है । क्या इनमें संमूर्छिम मनुष्यों का समावेश होता है या नहीं ? एकेन्द्रिय से ले कर पंचेंद्रिय तक सभी के प्रायश्चित्त बताए हैं। तो क्या संमर्छिम मनुष्य इन सबसे भिन्न जातीय है ? संमूर्छिम मनुष्य की पंचेंद्रिय जाति है। अतः उसमें उनका समावेश समझ सकते हैं। अथवा एक अन्य विवक्षा से उनका विकलेन्द्रिय में भी समावेश मान्य है। वह इस प्रकार - जीवसमास प्रकरण की वृत्ति में श्रीमलधारि हेमचंद्रसूरि महाराज ने बताया है कि - "विकलेन्द्रियग्रहणेनेह द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियाः तथा सम्मूछेज-पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याश्च गृह्यन्ते, एषामपि मनोविकलत्वेन विशिष्टसम्पूर्णेन्द्रियकार्याऽकरणात् परमार्थतो विकलेन्द्रियत्वात्” (गा. ४५, वृ.) इस अन्य विवक्षा से संमूर्छिम मनुष्य का विकलेन्द्रिय में भी समावेश हो सकता है । अत एव तदनुरूप उसकी विराधना का प्रायश्चित्त भी प्रतिपादित हुआ ही है । अन्यथा जलचर वगैरह की विराधना का भिन्न नामोल्लेख पूर्वक का प्रायश्चित्त न दर्शाने के कारण उन्हें भी अविराध्य = अपनी कायिक प्रवृत्ति से अहिंस्य मानने की आपत्ति आएगी । अतः मानना ही रहा कि जलचर, संमूर्छिम मनुष्य वगैरह जैसे प्रभेदों के प्रायश्चित्त पूर्वोक्त प्रायश्चित्तों १०२

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